वैसे तो
ख़ालिस पानी और कमसिन निगाहों तक से
उतारा गया है इत्र एक जमाने में,
लेकिन मिट्टी का इत्र तो अब भी उतारा जाता है
कन्ऩौज में
और मिट्टी जाती है नर्वल के इसी पटकन-तालाब से
चूंकि प्रेम-रस वाली एक लस है इस माटी में
सो र्इट पथाई के लिये भी ये पाई गई बहुत ही मुफ़ीद
लस के रस में
मुनाफ़ाखोर पटक-पटक कर इसे रौंदते
लस बढ़ती, र्इट और खरी उतरतीं, मुनाफा और भी खरा ..
पिटते-पिटाते तपाते-तपाते एक दिन
भट्ठों की आग के ताप में मिट्टी ने चुपचाप
मिला दिया अपना भी संताप
फिर तो फदक-फदक र्इटें बन गई खंझल
सात के सातों भट्ठे बरबाद
भट्ठा ही बैठ गया भट्ठेवालों का
मिट्टी का प्रतिशोघ – खंझल के सात पहाड़,
यह हमारे जन्म के पहले की बात है
तब उफान पर रहा होगा भारत का स्वाधीनता संग्राम
इन्हीं खंझल स्तूपों पर पर्वतारोहण के साथ
शुरू हुई हमारी जीवन यात्रा
रहा होगा वही समय जब तेनसिंग हिलेरी पहुंचे एवरेस्ट पर
भट्ठों पर उगे रुसाह के फूलों की मिठास बटोरते
झरबेरियां चुनते, सर्प भय से रोमांचित
पृथ्वी आकाश के अनश्वर संगीत में तरंगित
कूदते-फांदते, तमाम नश्वरताओं के साथ-साथ
हम भी बड़े हुए
उन दिनों वह शक्ति थी हमारे पास
कि पानी पृथ्वी आकाश और आंखों की मुस्कान के अलावा
हम और भी तमाम सुगन्धों को अलग-अलग पहचान लेते थे
और पाते ही हिंसा की दुर्गन्ध कैसी भी
छूटते थे हम तरकश के तीर-से
दुर्गन्ध बढ़ती रही
हमारी शक्तियों का लोप हुआ
खो दी हमने पिछले जन्मों की स्मृति
इतने पतन के बावजूद
बहुत कुछ बचा रहा, जैसे- यही मिट्टी का विद्रोह,
रुसाह की झाड़ियाँ, भीटें झरबेरियों की,
इनकी प्रत्येक टहनी से मेरा व्यक्तिगत परिचय है
वाकिफ़ हूँ मैं इनके पत्तों की रग-रग से
जो पतझर से लड़े और बने रहे,
हमारी पीढ़ी को तो और भी गहरी बातें पता हैं
जैसे कि आज भी जीवित हैं बहुत से हठ-
जैसे ये आम के दो पेड़ जिनके फल पकने पर
पीले नहीं बल्कि और भी हरे और कड़े हो जाते हैं,
इतने व्यक्तिगत परिचय के बावजूद
सबके अपने अलग-अलग संसार हैं
कोमलता कहां छू पाई बर्बरता को
अहंकार को कहां छू पाया संगीत
प्रेम परास्त नहीं कर पाया युद्ध को
तो, प्रत्येक वस्तु एक संसार है
प्रत्येक क्षण एक संसार है
प्रत्येक व्यक्ति एक संसार है
अपने में भरापूरा एक संसार है प्रत्येक भाव
इतनी अनेकता बनी रही बावजूद इतने पतन के
अब चूंकि नश्वरताएं भी अनश्वर हैं
इसलिए फीकी पड़ी है रुसाह के फूलों की मिठास
झरबेरी के गूदे तक में घुस चुकी है धूल
विद्रोह के बावजूद और भी खोदी गई मिट्टी
पटकन-तालाब गहराया है घाव-सा
गहराई है निराशा, गरीबी गाढ़ी हुई है
गहराये हैं अर्न्तविरोध
बच्चों में घटा है बचपन
परियों और भूतों का जिक्र आते ही
बच्चे हंसने लगते हैं हम पर
बड़ी खतरनाक हंसी हंसते हैं बच्चे
वैसे, मैने तो बचपन में,
जैसा कि होता है- दो पाँव उल्टे दो पाँव सीधे देखे थे भूत के
और थे नागपाश जैसे चार हाथ,
जैसा कि होता है- भूत के आसपास भूकम्प था,
फिर क्या, मैने तो अण्टी चढ़ाई मंत्र पढ़ा
और आकाश मार्ग से सीधे अपने आंगन आ खड़ा हुआ,
किन्तु महान आश्चर्य !
कि मेरे सबसे बड़े शत्रु गोपाल भइया ने अगले दिन
अलग से बुला कर मुझे कम्पट दिये
और दिन भर मुझे हंसाने के बहाने ढूंढते रहे
एक क्षयग्रस्त युग के साथ बीत कर भी
बीते नहीं हैं गोपाल भइया
ये क्या खड़े-खड़े मुस्कुरा रहे हैं हमारे दिशाभ्रम पर..
जब भी दुपहर की नींद टूटती है अचानक
तो वक्त लगता है समझने में कि क्या वक्त हुआ होगा
और कभी-कभी तो बीत जाता है ऐसे में ही पूरा जीवन
और पता ही नहीं लगता कि क्या वक्त हुआ होगा,
भंवर में गिरे हुए लोग ही
भंवर को और गहरा करते चले जाते हैं
और गोपाल भइया मुस्काते हैं कि
देखो भाई देखो अब तो क्रम का भी भ्रम !
हम जानते हैं कि ये चीजें यहां हैं
पर छूते ही वो उड़नछू हो जाती हैं
जितना ही करीब जाओ क्षितिज के
वो उतना ही दूर खिसक जाता है
भविष्य भी इसी तरह छुआई नहीं देता
पर दिखता रहता है
यहां तक कि खुद अपने आपको छुओ
तो ‘आपा’ भी छिटक कर जा बैठता है टीले पर
और वहीं से करता है टिलीलिली,
यही हाल प्रेम का
मिट्टी के प्रतिशोध का भी वही हाल
और गहराती संध्या के भूतों का तो और भी वही हाल
जितने स्निग्ध उतने ही छलन्तू
जितने स्थूल उतने ही सूक्ष्म
जितने निकट उतने ही दूर
अंधी गलियों से होकर चक्रव्यूह तोड़ते हुए
प्रमाण की तरह छोड़ते हुए अपने रक्ताक्त पदचिन्ह
सत्य आता है
मिट्टी के रस की सुगन्ध में,
खतरनाक हंसी हंसते अबोध शिशु-रूप में
सत्य आता है
रिक्ति में, स्मृति में, भ्रम और विस्मृति में भी
आता है सत्य ही
किन्तु वह क्या है जो दिखता है तभी
जब पहनता है भाषा का वस्त्र
और चलता है तब
जब सवारी करता है हमारी अनुभूति के संवेग पर…
वैसे, यह कोई रहस्य नहीं है
कि गोपाल भइया अब भी मुझ अधेड़ के सिरहाने
छोड़ जाते हैं कम्पट
और हमें हंसाने के बहाने अब भी ढंूढते रहते हैं
हंसी भले विद्रूप की ही हो
और कहां जान पाया मैं उस दूसरे के बारे में
जो उस साँझ
गोपाल भइया के हृदय में गहरा रहा था
बहुत कोमल रात की चूनर-सा
VERY IMPRESSIVE & EMOTIONAL POEMS, TOUCING HEART FORWVER.
THANK TO SHUKLA JI FOR HIS EFFORTS, GOD BELSS HIM & LONG LIVE
OUR WARM REGARDS TO POET SHUKLA JI.
: ANIL DIXIT