बहुत दिनों से चले जा रहे इन्ही राहों पर,चलो कुछ राहों को बदला जाए। उलझनों से हाथ मिलाने की आदत सी है,चलो अब अचेतन मन को सुलझाया जाए। बात-बात पर रूठने के चलन को,कभी अब हमेशा के लिए मनाया जाए। बहुत ऊंची मंजिलों से डरते हैं हम,क्यों ना ऊंचाई और निचलेपन के,अन्तर को मिटाया जाए। ।हमेशा सुनते आये है,लोग क्या कहेंगे,चलो अब खुद से बोलकर,खुद को ही सुनाया जाए। दुख दर्द का सिलसिला शायद कभी खत्म न हो,क्यों न कभी खुल कर मुसकुराया जाए। जिस किसी गुज़रे ज़माने ने रुलाया था,अब धुंधले उस जमाने को पीछे छोड़ा जाए। आज के इन नगमों की धुन को थोड़ा रोककर,चलो रस,छन्द,अलंकार को अपनाया जाए ।। अजंली यादव
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Full of positivity. Well done.
Thanks a lot sir.
bahut khoobsoorat…………….
Thanku sir
उज्ज्वल भविष्य के प्रति आशावादी सोच बहुत सुन्दर
धन्यवाद आपका।