लोग तो हैं ऐसे इसे जिन्दगी कहते हैंहम इसे साये-मौत की दिल्लगी कहते हैं।ये छलकते जाम भी इक साज से होते हैंहम प्यासे इसे महकती बंदगी कहते हैं।इस घर के सामने बेघरों की जो भीड़ हैवे ही इसके मलबे को गंदगी कहते हैं।ये चिथड़ा कमीज, ये फटी नीकर कुछ तो हैइस गरीबी को लोग तो सादगी कहते हैं।बासी रोटी से उठती भूख की खश्बू कोगरीब बच्चे बेचारे ताजगी कहते हैं।गरीब की झोपड़ी जलाकर खाक कर देनाहरेक मजहब इसी को दरिंदगी कहते हैं।…… भूपेन्द्र कुमार दवे00000
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एक सच्चाई के साथ लिखी हुई रचना। बहुत सुन्दर।