तारीख बदलती रहीदिन बीतते रहे और बीत रहा था ये सूरज और चाँद भीपता ही नहीं चला कभीये वक़्त कैसे बीत रहाकमजोर होते कंधेऔर कमजोर होती नजरबूढ़ा बना रही मुझेऔर बढ़ा रही थी ज़िन्दगी की मुश्किलें.ये वक्त जो बेहिसाब बिताया मैंनेअपनो के साथ ये मुझे मेरे अपनो से मेरे हिस्से का वक़्त क्यों नहीं मांगताजो मैंने लुटा दिया था उन परउनकी जरूरतों के लिएजिनकी नन्ही उँगलियाँ पकड करस्कूल तक छोड़ा मैंनेआज वे क्यों मेरा हाथ थाम करसड़क भी पार नहीं करवाना चाहते.ये वक़्त उन्हें सबक नहीं सीखा सकताजो ज़िन्दगी का सबक भूल गएजो मुझ बूढ़े से उसकी लाठी छीन गएजो मेरी आँखों के तारे थेवो क्यों मेरी आँखों की रौशनी छीन गएक्या उन्हें पाल कर गुनाह किया था मैंनेक्या वो ये गुनाह नहीं करेंगेये वक़्त उन्हें भी सबक सीखाएगाये वक़्त उन्हें भी बूढ़ा बनाएगा–अभिषेक राजहंस
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बहुत अच्छा प्रयास अच्छी रचना।
Achhi rachna hai.
khoobsoorat……………..
खुबसूरत रचना अभि