मन रुपी मानुष..
श्रावण छवि धारण कर ली,मन-मस्तिष्क के घुमड़ते मेघो ने,वर्षा होने लगी है अब,नयनो के समुन्द्र से अश्को की,ध्वंसावशेष के अवयव में,कुछ आर्द्रता का एहसास होने लगा,मृदा भी गीली हो गई,अरमानो के इस बंज़र कृषिक्षेत्र की,पनपने लगे है…,अहसास, कुछ खट्टे से, कुछ मीठे से,अंकुर ज्यो-ज्यों फूटेंगे,भावो के मन में, लहलाने लगेगी,फसल, प्रेम से लदे लबो कि मुस्कान लिए,फलों-फूलों सी,खिल उठता है रोम-रोम,खुल जाती है, पुलकित मन कि गिरहेंझूम-झूम गाने लगता फिर,कण-कण बिखेरता सोंधी सोंधी खुशबूपूरे शबाब पर होता है फिर,सौंदर्य से परिपूर्ण, सावन का रूप, निखर उठता हैऔर, मन रुपी मयूर, मद-मस्ती नाचने लगता है !श्रृंगार का ये अप्रतिम रूप,कहाँ मिल पाता है इस आत्मा कोवंचित रह जाता है इससे,भटकता है, पल-पल, विलासिता कि खोज मेंऔर फिर एक दिन खो जाता हैरह जाता उसी में विलीन होकर,ये मन रुपी मानुष…………… !!
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डी के निवातिया
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Behtreen rachnaa. Shabd chayan bemisaal. Aapki versatility is praise worthy.
बहुत बहुत धन्यवाद आपका ………………SHISHIR JI.
बहुत ही सुन्दर रचना 👌👌👌👌
बहुत बहुत धन्यवाद आपका ………………BHAWANA JI
Bahut hi sundar rachna, Nivatiya ji…
बहुत बहुत धन्यवाद आपका ………………ANU JI.
क्या अंतर्मन के भावों को चित्रण किया है….. सबसे मुश्किल काम है ये…. मन में उठाते भाव ही तो बदलते मौसम को प्रतिबिंबित करते हैं…. मन में प्यार है तो पतझड़ भी बसंत लगती है…. सावन की तरह झूमता है…. नहीं तो बाहर कितनी भी हरीतिमा हो….भीतर बंजर…. यादों के बादल….कभी घनघोर बरसते हैं कभी प्यार के फूल खिलाते हैं… मन ही तो सही रूप में मानुष है… अप्रतिम ….जय हो….
बहुत बहुत धन्यवाद आपका ………………आपके वचनो से बहुत ऊर्जा मिलती है ..BABBU Ji.
अत्यंत सुन्दर ………., “नई कविता’ की बात ही अलग है । भाव निर्झर जैसे बहते हैं ।
बहुत बहुत धन्यवाद आपका ………………MEENA JI.