जुदा होकर समय जो तुमसे मैंने तन्हा काटा है दर्द सीने में रक्खा है किसी के संग ना बाटा हैतुम्हारी ढाल बन जिनसे मैंने महफूज़ रक्खा था उन्होंने सर कलम करने को अब मुझको छांटा है मुहब्बत के सिवा मुझको झुका ना पाएगा कुछ भी मैंने डर कर कभी इंसान का तलवा ना चाटा है ज्वार में छुप गया सब कुछ उफनते आब के नीचे चोट साहिल की दिखती है गुज़र जाता जो भाटा है खाइयां बढ़ गईं इतनी कि अब मिलना हुआ दूभर ना तुमने करी कोशिश ना इन्हें मधुकर ने पाटा है शिशिर मधुकर
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बेहद खूबसूरत…..
ज्वार में छुप गया सब कुछ उफनते आब के नीचे
चोट साहिल की दिखती है गुज़र जाता जो भाटा है
भाटा साहिल को नुक्सान करता है….मुझे ऐसा नहीं पता….आप वैज्ञानिक हैं….ज्यादा जानते…मार्ग दर्शन चाहूंगा….मेरे हिसाब से भाता उफनती लहरें जब नीचे के तरफ जाती उतनी फोर्स से उसको कहते जो याद है बचपन का…. और जवार किनारों से उठता है…इसका भी मुझे सही ज्ञान नहीं है…बहुत पहले जो पढ़ा था बस उस हिसाब से कह रहा….जानकारी प्राथमिक ही है मेरी….हाहाहाहा…
हाँ “आब” चेक करें यहां….मुझे लगता “आब” उस जल को कहते हैं जो शीशे पे चढ़ाया जाता है…बोलते हैं न कि शीशे पे पानी चढ़ा है… तभी शक्ल नज़र आती है…. या चमक को ….चेहरे की रंगत… नूर को कहते…. शीशे में भी उसी आब से चमक होती है…. मुझे भी अवगत कराएं कृपया…
Dhanyavaad Babbu Ji. Maine aapko email par ek reply bheja hai kripyaa use dekhiyegaa.
जी….आपसे सहमत हूँ….और ज्ञान वर्धन करने का तहदिल आभार आपका….
So very nice of you Babbu ji …………….
Bahut hi sundar rachna, Shishir ji…
Tahe dil se shukriya Anu ………