बदलके सारे दीवार-ओ-दरों कोकर गया वो पराया अपने घरों को।कहाँ तक उड़े चले जाते हैं देखेंआस्मां मिला है टूटे हुए परों को।बहा है लहू किसके सरों का, देखोउठाकर फेंके हुए इन पत्थरों को।क्या पता कि वोह सोया भी था कि नहींछोड़ गया है वो गूँगे बिस्तरों को।बहुत लहूलुहान हो गया है बिचारासमझाये कोई तो अब ठोकरों को।ये कलियाँ शबनम भरी सिसकती रहींकहीं काँटे ना चुभ जायें भ्रमरों को।वोह मुस्कान तेरे लबों को छूकरचूम चूम जाती है मेरे अधरों को।…. भूपेन्द्र कुमार दवे00000
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Behda sundar rachnaaa Bhupendra ………
Many thanks.
बहुत दिनों बाद दर्शन हुए….और क्या लाजवाब लिखा है…वाह….”क्या पता कि वोह सोया था या कि नहीं” या को आप डिलीट कर दीजिये इसमें….अंतिम शेर में काफिया टूट गया….. शेर बहुत अच्छा है….
Agreed, Happy to see your good suggestions. Thanks.
लबों की जगह अधरों रखना था।