(1.)
ये वही गाँव हैं फ़सलें जो उगाते थे कभी
भूक ले आई है इन को तो नगर में रख लो
—प्रेम भण्डारी
(2.)
हम साँप पकड़ लेते हैं बीनों के बग़ैर
फ़सलें भी उगाते हैं ज़मीनों के बग़ैर
—सादिक़ैन
(3.)
अँधेरा कर के बैठे हो हमारी ज़िंदगानी में
मगर अपनी हथेली पर नया सूरज उगाते हो
—महावीर उत्तरांचली
(4.)
घास भी उगती नहीं है बाल भी उगते नहीं
बन गया है सर मिरा मैदान बाक़ी ख़ैर है
—सय्यद फ़हीमुद्दीन
(5.)
धुँदले धुँदले पेड़ उगती शाम की सरगोशियाँ
जो है शह–ए–रग के क़रीं उस नाम की सरगोशियाँ
—मरग़ूब अली
(6.)
दुश्मनी पेड़ पर नहीं उगती
ये समर दोस्ती से मिलता है
—साबिर बद्र जाफ़री
(7.)
जुनूँ की फ़स्ल गर उगती रही तोज़मीं पर आग बरसाएगा पानी—अनवर ख़ान
(8.)
गहरे सुर्ख़ गुलाब का अंधा बुलबुल साँप को क्या देखेगा
पास ही उगती नाग–फनी थी सारे फूल वहीं मिलते हैं
—अज़ीज़ हामिद मदनी
(9.)
किस की यादें किस के चेहरे उगते हैं तन्हाई में
आँगन की दीवारों पर कुछ साया साया लगता है
—असग़र मेहदी होश
(10.)
मिरी हस्ती मगर फ़स्ल–ए–बहार–ए–शो‘ला है ‘नाज़िम‘
शरर फलते हैं दाग़ उगते हैं और अख़गर बरसते हैं
—सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
(11.)
हमारे रहनुमाओं ने कुछ ऐसे बीज बोए हैं
जहाँ तरबूज़ उगते थे वहाँ ख़ूबानियाँ होंगी
—खालिद इरफ़ान
(12.)
तो फिर आँखों में सपने एक से क्यूँकर नहीं उगते
लकीरों के अगर दोनों तरफ़ इंसान होते हैं
—इस्लाम उज़्मा
(13.)
सियह सख़्त मौजों के आसेब में
जज़ीरे धनक रंग उगाता है तू
—सलीम शहज़ाद
(14.)
अल्लाह के बंदों की है दुनिया ही निराली
काँटे कोई बोता है तो उगते हैं गुलिस्ताँ
—फ़ारूक़ बाँसपारी
(15.)
ज़ा‘फ़रानी खेतों में अब मकान उगते हैं
किस तरह ज़मीनों से दिल का राब्ता माँगें
—अहमद शनास
(16.)
ख़ुद अपनी फ़िक्र उगाती है वहम के काँटे
उलझ उलझ के मिरा हर सवाल ठहरा है
—बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन
(17.)
तसव्वुर की ज़मीं पर फ़स्ल उगती है सराबों की
नमी होती नहीं लेकिन नमी महसूस होती है
—सलीम शुजाअ अंसारी
(18.)
मैं तो ख़ुशियों के उगाता रहा पौदे ‘अकमल‘
और हर शाख़ पे ज़ख़्मों के ख़ज़ाने निकले
—अकमल इमाम
(19.)
जहाँ हर सिंगार फ़ुज़ूल हों जहाँ उगते सिर्फ़ बबूल हों
जहाँ ज़र्द रंग हो घास का वहाँ क्यूँ न शक हो बहार पर
—विकास शर्मा राज़
(20.)
धूप की रुत में कोई छाँव उगाता कैसे
शाख़ फूटी थी कि हम–सायों में आरे निकले
—परवीन शाकिर
(21.)
ईंट उगती देख अपने खेत में
रो पड़ा है आज दिल किसान का
—इरशाद ख़ान ‘सिकंदर’
(22.)
फाँसियाँ उगती रहीं ज़िंदाँ उभरते ही रहे
चंद दीवाने जुनूँ के ज़मज़मे गाते रहे
—अली सरदार जाफ़री
(23.)
ज़िंदगी मज़रा–ए–तकलीफ़–ओ–सुकूँ है ‘अफ़ज़ल‘
शाम उगती है यहाँ नूर–ए–सहर से पहले
—शेर अफ़ज़ल जाफ़री
(24.)
कुदाल–ए–ख़ामा से बोता हूँ मैं जुनूँ ‘सारिम‘
सो उगते रहते हैं दीवाने मेरे काग़ज़ से
—अरशद जमाल ‘सारिम‘
(25.)
रोने–धोने से नहीं उगता ख़ुशी का सूरज
क़हक़हे होंट पे बोलूँ तो सियह रात कटे
—शमीम तारिक़
(26.)
हिद्दतों की बारिश में सूखती थीं शिरयानें
छाँव की तलब मेरे सेहन–ए–दिल में उगती थी
—नियाज़ हुसैन लखवेरा
(27.)
दाग़ उगते रहे दिल में मिरी नौमीदी से
हारा मैं तुख़्म–ए–तमन्ना को भी बोते बोते
—मीर तक़ी मीर
(28.)
अल्लाह के बंदों की है दुनिया ही निराली
काँटे कोई बोता है तो उगते हैं गुलिस्ताँ
—फ़ारूक़ बाँसपारी
(29.)
उम्मीद के हबाबों पे उगते रहे महल
झोंका सा एक आया खंडर हो के रह गए
—वामिक़ जौनपुरी
(30.)
रात भर ताक़त–ए–परवाज़ उगाती है उन्हें
काट देता है सहर–दम मिरे शहपर कोई
—ज़ेब ग़ौरी
(31.)
घुप अँधेरे में उगाता हूँ सुख़न का सूरज
बे–सबब थोड़ी है रातों से लगाव साहब
—नदीम सिरसीवी
(32.)
जौहर–ए–तेग़ ब–सर–चश्म–ए–दीगर मालूम
हूँ मैं वो सब्ज़ा कि ज़हराब उगाता है मुझे
—मिर्ज़ा ग़ालिब
(33.)
मैं जब भी शब के दामन पर कोई सूरज उगाता हूँ
तिरी सोचों की गहरी बदलियाँ आवाज़ देती हैं
—शफ़ीक़ आसिफ़
(34.)
कभी ख़ुशबू कभी नग़्मा कभी रंगीन पैराहन
‘नदीम‘ उगती है यूँ ही फ़स्ल–ए–ख़्वाब आहिस्ता आहिस्ता
—कामरान नदीम
(35.)
जाने किस रुत में खिलेंगे यहाँ ताबीर के फूल
सोचता रहता हूँ अब ख़्वाब उगाता हुआ मैं
—अरशद जमाल ‘सारिम‘
(36.)
कोई फल फूल नहीं मग़रिबी चट्टानों पर
चाँद जिस गाँव से उगता है वो दुनिया देखूँ
—बिमल कृष्ण अश्क
(37.)
नमक अश्कों का दिल को लग गया है
यहाँ अब कुछ कहीं उगता नहीं है
—बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन
(38.)
जों सब्ज़ा रहे उगते ही पैरों के तले हम
बरसात के मौसम में भी फूले न फले हम
—शाद लखनवी
(39.)
हमारे चेहरों पे अब अपना–पन नहीं उगता
ये वो ज़मीं है जो बंजर पड़ी है बरसों से
—आबिद आलमी
(40.)
काश इस ख़्वाब की ता‘बीर की मोहलत न मिले
शो‘ले उगते नज़र आए मुझे गुलज़ार के बीच
—मोहसिन नक़वी
(41.)
फूल तो फूल हैं पत्ते नहीं उगते जिन में
ऐसे पेड़ों से भी उमीद–ए–समर होती है
—महफ़ूज़ असर
(42.)
पत्थरों के सीने में आइने भी हीरे भी
ज़ुल्मतों का ख़ालिक़ ही मेहर–ओ–मह उगाता है
—उरूज ज़ैदी बदायूनी
(43.)
रोज़ सूरज डूबता उगता हुआ
वक़्त की इक कील पर लटका हुआ
—सीमा शर्मा मेरठी
(44.)
बहुत ही रास है सहरा लहू को
कि सहरा में लहू उगता बहुत है
—बेदिल हैदरी
(45.)
चाँद तिरे माथे से उगता है चंदा
रात मिरी आँखों में रक्खी जाती है
—दानियाल तरीर
(46.)
खेतियाँ छालों की होती थीं लहू उगते थे
कितना ज़रख़ेज़ था वो दर–बदरी का मौसम
—लईक़ आजिज़
(47.)
करिश्मा ये तिरे अल्फ़ाज़ का नहीं फिर भी
फ़ज़ा में ज़हर उगाता हुआ सा कुछ तो है
—सुलेमान ख़ुमार
(48.)
बैठिए किस जगह जाइए अब कहाँ
हर तरफ़ ख़ार उगता हुआ और मैं
—सदफ़ जाफ़री
(49.)
ज़मीं से उगती है या आसमाँ से आती है
ये बे–इरादा उदासी कहाँ से आती है
—अहमद मुश्ताक़
(50.)
मशहद–ए–आशिक़ से कोसों तक जो उगती है हिना
किस क़दर या–रब हलाक–ए–हसरत–ए–पा–बोस था
—मिर्ज़ा ग़ालिब
(51.)
वो जिस में कुछ नहीं उगता
वो रुत आ ही गई मुझ में
—विकास शर्मा राज़
(साभार, संदर्भ: ‘कविताकोश’; ‘रेख़्ता’; ‘स्वर्गविभा’; ‘प्रतिलिपि’; ‘साहित्यकुंज’ आदि हिंदी वेबसाइट्स।)
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हो रही समीक्षाएं तो बाहर भी झांकिए
कुनबे बनाकर चलने वाले चलते रहे है।
‘मंगल’की मानो अथवा न मानो जनाब
जिसने विश्व को देखा वह मचलते रहे हैं।
-सुखमंगल सिंह’मंगल’पालीवाल मोबाइल-
09452309611
साइट-google+sukhmangal आदि