मुहब्बत में मुझसे कैसा करार हो गयामिले थे हम अपना समझ के रार हो गया।अब तो संभल कर ही होगा देखना उसेपहले ही झलक में मुझे बुखार हो गया।प्यार में तकरार तो ऐसे आते रहेंगेइरादा पाक था इसलिए इकरार हो गया।उनका दकियानूसी मुझे आती नहीं समझउनके सादगी के लिए इंतजार हो गया।कडवी बोलती, गुस्सा और डर दिखाती हैहंसी होठ का देखकर बेजार हो गया।दिल को समझना समझाना मुझे आ गयारंग में आई दिवानगी दीदार हो गया।गुफ्तगू चलती रही ऐसे हम एक हो गयेभेद कुछ भी न रहा मन में प्यार हो गया।
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बिंदुजी….आपके भाव बहुत अच्छे होते हैं….लेकिन वर्तनी…लिंगभेद अशुद्धियाँ मजा खराब करती हैं…. और काफिया का निर्वहन कई बार सही नहीं होता है…जैसे कि:
मुहब्बत में मुझसे कैसा करार हो गया
मिले थे हम अपना समझ के रार हो गया।
(इसमें सामंजस्य नहीं बन पाया है….करार का अर्थ कई प्रकार से लिया जाता… जैसे… स्टेबिलिटी …. शान्ति … एग्रीमेंट…अब यहाँ आपके शेर में करार एग्रीमेंट के जैसे आ रहा है…लेकिन अगली पंक्ति इसके भाव को पूर्ण नहीं करती…वो अलग जा रही…रार झगड़ा…तकरार ले रहे हैं तो….और अगर दूसरी पंक्ति में हम ‘दोनों’ से है तो पहली में ‘मुझसे’ कि जगह हम होना चाहिये…..)
उनका(उनकी) दकियानूसी मुझे आती नहीं समझ
उनके(उनकी) सादगी के लिए इंतजार हो गया।
(इंतज़ार काफिया सही नहीं है यहां…सादगी एक व्यक्तिगत मामला है…विशेषण है…पसंद से ताल्लुक रखता है…लेकिन दुसरे के लिए इंतज़ार का सबब कैसे ?)
अति सुंदर बिंदु जी ……………….मै बब्बू जी की बात से सहमत हूँ ……….आप को लिंग भेद पर कार्य करने की अति आवश्यकता है !