भीतर किसी तरुणाई पर खग मृग अकुलाते हैं इनके घने अंधेरों में गूंगे भी शोर मचाते हैं | निष्ठा भी अंगड़ाई लेती इनके हरे बिछौनों पर जाने कितने जाल बुने हैं इनके कोनो-कोनो पर | शीतल सुगन्ध ,जल तरंगकोपल प्रफुटित, जलज अंग मृणाल सुशोभित,हर्षित रंग मनभावन है चन्दन सुगन्ध | लताऐं लिपटी हैं निहंग शान्त कुपित,छिपे भुजंग सीमा समाहित जीव अनन्त छिपी चिंगारी पाषाण प्रचंण्ड | सरसराती विप्लवी घास घनघोर अन्धेरा छिपा आकाश कीचड़ दलदल है पलास मखमल,सुन्दर,रज सुभाष | वृक्ष सीना तान खड़े हैं धरा पर अपना मान बड़े हैं ये अब शीश झुकायें नहीं शिखर पर्वत समान अड़े हैं | सर-सर,सर-सर ,ध्वनि अविरलझर-झर,झर-झर,पवन सजल अबोध, आनंदित फूल फल कल-कल बहते झरने निश्छल | निकल श्वान चिल्लाते हैं पथिक तनिक घबराते हैं विकट शोभती छाया में कभी-कभी सुस्ताते हैं | इन ‘वनो’ सा गान कहाँ ये जीवन स्वर्ग समान कहाँ निरीह,अगोचर जो जग मेंये सोन सुसज्जित खान कहाँ | प्रवाह तड़ित होती तन में अनुराग घुमड़ता है मन में शाह भी शीश झुकाते है आकर देखो इन ‘वन’ में |
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घने जंगलों में जाने से
जानै क्यो डर लगता।
जिन्हें नक्सली कह तलाशते
अपनो से डरता है।
वन जीवन की प्राण वायुपर
हम उनको काट रहे ।
पक्षिया जीवन की शान मगर
सब उनको बाॅट रहे।।
Bhuhut achhe
हार्दिक आभार! आदरणीय राकेश कुमार जी आपकी रचना वाकई लाजबाब ,अनुभवों से परिपूर्ण ,वास्तविक परिदृश्य
Bahut bahut dhanyevaad aapka
वन जीवन का सुन्दर चित्रण
Aabhar aapka
वन्य जीवन का आधार होते है …………..इनकी विशेषता प्रकट करती सुंदर रचना ………………….अति सुंदर !
pratikriya ke liye dhnyevaad
बहुत सुन्दर…मनोरम दृश्य…..”विकट शोभती छाया में” विकत उचित शब्द नहीं है…सघन सही लगता मुझे…
Behad sundar rachnaa ………….