लफ्जों के खेल में, हसरतों के दाग लग गयेरिश्ते जलील हो गये, नफरतों में आग लग गये। कितनी अच्छी भली, चल रही थी उनकी गृहस्थी मति फिर गई, न जाने कौन से दिमाग लग गये। जिसे समझ रहे थे अपना रकीब , अपना मुकद्दर अपने घर में ही छिपे, आस्तीन के नाग लग गये। उजाड़ कर रख दिया जलिमों ने,हंसता हुआ चमनकिस्मत क्यों रूठी,जो जीवन के गुणा भाग लग गये। बिन्दु आवाक ही देखता रहा, इन तस्वीरों को बचे हुए जमीर को नोचने लिए काग लग गये।
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बहुत सुन्दर
बिंदुजी…बहुत खूबसूरत….वर्तनी अशुद्धियाँ हैं….’आस्तिक’ को आस्तीन कर लें…
“बचे हुए जमीर , नोच खाने के लिए काग लग गये” इसको ऐसे लिखिए बिलकुल सीधा “बचे हुए जमीर को नोचने के लिए काग लग गए” तो लय अच्छी बनती है…बाकी आप मालिक हैं…
बहुत अच्छे बिंदु जी …………..आपके भाव तो अच्छे निकलते है …………..अब आपको वर्तनियों की अशुद्धियों पर ध्यान देना अति आवश्यक हो चला है …..कृपया इस और कार्य करे किसी भी सहयोग के लिए सभी गुणीजन सदिआव आपके साथ है !
Ling bhed par Bindu ji main pahle bhi kahtaa raha hun sudhaar ho to gunvatta or badhegi…….