यदि तुम मुझको जान सके होइतना साथ निभा देनामेरे होने का आशय दुनिया को समझा देनामैं सक्षम पर वक़्त नही थाजो सम्मुख वह सत्य नही थाअंतस में जो पीर सिंधु थाजिसका तुमको ठौर पता थाअवसर जान उचित उपक्रम सेइक इक कण पिघला देनायदि तुम मुझको जान सके होसीना तान खड़ा जो बाहरभीतर रेंग रेंग कर चलताये कैसा पुरुषार्थ, योग हैघुटने टेक समर्पण करताजो घृणित है जो निषेध हैजो अधर्म का अनुच्छेद हैईश्वर की अवज्ञा करताबार बार वह कृत्य उभरताबंधा हुआ वह किसके वश मेंचीख चीख कर गा देनायदि तुम मुझको जान सके होमैं मिट्टी कच्ची गीली सीदेव मेरा एक कुम्हार था,नही त्रुटि कोई संरचना मेंन श्रम में कोई विकार थाजो तालीम मिली वंदन करसंकल्पों का अभिनंदन करमैं नित जीवन प्रथा निभातीटूट फूट कर फिर जुड़ जातीमन का घट रिस रिस कर टूटाकिस कारण जीवन था रूठाक्यों आघात सहन कर पाईकुछ तो पता लगा लेनायदि तुम मुझको जान सके हो।वृक्ष स्वयं ही फल खायेगा क्या ऐसा भी युग आएगानदिया नीर स्वयं पी जायेगागर सागर नजर न आयेसीमाओं को तोड़ मोड़ करसृजन स्वयं सृष्टा बनता हैजीवन दूषित होकर प्रतिक्षणमृत्यु की राहें तकता हैकब तक ईश्वर मौन रहेगाकब तक यह तांडव ठहरेगामेरे भय की झलक समूचीमानवता को दिखला देनायदि तुम मुझको जान सके होइतना साथ निभा देना देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”
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बहुत ही उम्दा रचना
मन का द्वन्द…कसक….हमेशा रहती है…समय के साथ….ऐसा कोई ही होगा जो हर समय अपने को संतुष्ट समझे … चेतन मन पखेरू है…कहाँ रुकता है…इस लिए टीस होना भी ज़रूरी है…बेहद उम्दा लिखा आपने…. एक दो पंक्तियाँ मुझे स्पष्ट नहीं हुई….पहले पद में “जिसका तुमको ठौर पता था” एक तरफ तो सब पता है…फिर “यदि तुम मुझको जान सके हो” विरोधाभासी लगती… तीसरे पद में “क्यों आघात सहन कर पाई” क्या ऐसे होनी चाहिए थी “क्यों आघात न सहन कर पाई”… हो सकता मैं आपकी सोच तक न पहुंचा हूँ…
मन पखेरू सदैव विचलित रहता है …..चिंतन कि और मोड़ना वैचारिक भावो को दर्शाता है …………..बहुत खूबसूरत सृजन !!
बहुत ही खुबसूरत रचना
achhi rachna bas gunijane ke baat par amal karen. thanks
Bahut hi badiya..
उचित मार्गदर्शन के लिए सादर आभार।
Bahut sundar…
रचना के भाव खूब हैं बाकी शर्मा सर जी सही कहते हैं
Devendra bahut khoob. Par main bhi Babbu Ji ke doosre kathan se sahmat hun us par gaur karnaa.