धरा धधकती तपन से, है सूरज अंगार। त्राहि – त्राहि अब मच रही, बिन पानी संसार। ताल पोखर सूख गये, बिलख गये सब जान हरितिमा सब झुलस रहे, गर्मी बना उफान।देखो कलियुग चल रहा, काग हंस की चालटूट रहा ऐसा कहर, बद से बदतर हाल। माया के इस जाल में, रखो फूंककर पाँवचहुँ दिश कड़वी घूप है ,उनमें खोजो छाँव। मानव तन अनमोल है, सोच समझ कर बोल कर्म करो अच्छा भला, रहे बराबर तोल। बीते बचपन खेल में, गये जवानी हारबूढ़ बैठ कर रो रहे, यह जीवन का सार।दो दिल देखो मिल रहे, आँख बने अंगारऐसा ही अब लग रहा, कलियुग में ब्यापार।
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वाह वाह ! अति सुन्दर
बहुत सुन्दर
Ati sundar ……..
sahi kaha…..bahut khoobsoorat……..
बहुत खूबसूरत बिंदु जी ………!