विक्षोभ ——————–स्तब्धित दिशाएँबेकली हवाएँव्यथित अंबरकह रहा आज -बेहद निर्मोही ,बडी निर्दयता से ‘ कैसी ‘ -मिट रही , क्यों कोई मिटा रहा लाज !नष्ट हो रहे प्राण हा ! विकट रूग्णता , घोर त्राण !नष्टप्राय संसाधन हो रहे विलुप्त ,दुःखद, मिट रहे संतान ;गंभीर विप्लव की ओर बढ रही धरासौम्यता भी खो चुकी आज लुप्त , हो रहे मृतप्राय जनमानस वितान !लूट रही सौम्य प्रकृति अनवरत…परिणाम ,दुःखद् भयावह जन विकल उद्वेलितभाव – भंगिमाएँ भी चढी हुयीनिरस , निकृष्ट |हो रहा सब कुछ अनर्थ,कराल- काल , कवलित करने राखदीखा रही किसी अवश्यंभावी विध्वंस को !बहुत देर हो चुकी बीते क्षण-क्षण ,घीर चुकी नैतिकतासब उपक्रम व्यर्थहो गयी मलिन रेखा सम्पन्नता की ;क्षीण उर्वरा , बहुत कटुता ! विकलता !! विक्षोभ !!!© कवि आलोक पाण्डेय
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Aaj ke daur ke man maans ki uthal puthal kaa sajeev chitran Alok. Bekali ke sthan par bekal hona chahiye. isi prakaar ek do sthaan par tankan ki ashudhiyaa door kar lo to rachnaa aur prabhavshaali ban padegi.
आलोकजी….समाज जब अंधाधुन्द विकास की दौड़ में भागता है प्रकीर्ति को नष्ट करते हुए तो विध्वंस होना लाज़मी है…आपने क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग किया है पर लय बाधित होती नजर आती मुझे…टंकण अशुद्धियों से भी और विरोधाभास सा प्रतीत होता…जैसे की…”नष्टप्राय संसाधन हो रहे विलुप्त”…नष्टप्राय का ओचित्य नहीं समझा जो नष्ट होना है वो तो होगा ही…पर आपकी रचना के सन्दर्भ में उचित नहीं लगता…रचना का भाव है की सम्पन्नत की भाग दौड़ में संसाधन नाश हो रहा… “संसाधन हो रहे विलुप्त” ये ज्यादा सही लगता…”सौम्यता भी खो चुकी आज…लुप्त , हो रहे मृतप्राय जनमानस वितान…लूट रही सौम्य प्रकृति अनवरत” सौम्यता या तो ख़त्म हो गयी या वो हो रही…एक ही चीज़ हो सकती न…”सब उपक्रम व्यर्थ
हो गयी मलिन रेखा सम्पन्नता की…क्षीण उर्वरा”…जब सब व्यर्थ हो गया तो “क्षीण उर्वरा” किस रूप में….
Nice Sir your advice are valuable for everyone
अति सुंदर आलोक ………..शिशिर जी एवं बब्बू जी के सुझाव अनुकरणीय है …………….आपने कविता को सुंदर शब्दों में सजाने का प्रयास किया लेकिन अच्छे शब्दों के साथ आवश्यक है की टंकण त्रुटिया एवं तालमेल तार्किक एवं अर्थपूर्ण संयोजन भी रचनात्मक सौंदर्य के लिए आवश्यक है !
Nice