उम्र की उस दहलीज पर आकर बिखर गया हूँ मैंसिर्फ रुशवाई ही मिली जिधर भी गया हूँ मैंकूबतों का कूबड़ काम ना आ सका मेरेनाम बचाने जाने कितना खुद को कुतर गया हूँ मैंख़ाक भी ना जोड़ पाया जिंदगी खर्च करकेअपने ही दामन से इतना उलझ गया हूँ मैंबेइंतिहा निकले हैं कांटे मेरे दामन मेंअपनी अच्छाईयों से झुलस गया हूँ मैंकहते हैं मैं पहले जैसा ना रहा, तो क्याकुछ बिगड़कर थोड़ा तो सुधर गया हूँ मैंकागजों पर उड़ेल दूँ दिल के सारे दर्दकब का जिंदगी से पहले बिखर गया हूँ मैंकरके यकीन मुझपर थोड़ा तो रहम करइस दिल की गुस्ताखियां ही भुगत रहा हूँ मैंकभी तो महका दे गुलाब आबो बहार काबुत्तपरस्ती में जाने कब से बिफर रहा हूँ मैं
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राकेशजी….शुरआत में रचना समझने में असमर्थ पाता हूँ मैं अपने को…उम्र की ‘उस दहलीज़’ की जगह ‘इस दहलीज़’ लगता होना चाहिये….रूश्वाई को रुस्वाई कर लीजिये….इन दो पंक्तिओं में मैं आपकी सोच तक नहीं पहुंचा हूँ….हो सकता टंकण गलती से लफ्ज़ जो लिखना चाहते वो नहीं लिखा गया…अगर अन्यथा न लगे तो कृपया स्पष्ट करियेगा…
“कूबतों का कूबड़ काम ना आ सका मेरे
नाम बचाने जाने कितना खुद को कुतर गया हूँ मैं”
I liked it very much. But take care of typographical errors as advised by Babbu ji …….
अति सुंदर सृजन ………बाकी गुणीजनों ..ने जो सुझाव दिए है उनसे सहमत हूँ !!
सुन्दर प्रस्तुति
Bahut sundar..