मै हुक्म पर हुक्म दिए जा रहा थावह श्रम पर श्रम किये जा रहा थाबिना थके बिना रुकेतन्मयता से तल्लीनअदभुत प्रवीनपसीने में डूबासामने रखेजल से भरे घड़े की ओर देखता हैफिर उंगलिया सेमाथे को पोछता हैमाथे से टूटतीपसीने की बूंदेधरा पर गिरती,बनाती,सूक्ष्म जलाशय क्षण भर कोफिर उतर जातीधरा की सतहसे धरा के हृदय मेंवह मुस्कुराता कृतज्ञता सेधन्य धन्यहे वसुंधराकुछ बूंद ही सहीअतिसूक्ष्मही सहीतेरी तृष्णा कोतृप्त करती हैंमेरे श्रम की ये उपजपर क्या मेरी तृष्णा का ऐसा स्वाभाविक उपचार हैश्रम का भीकुछ अधिकार है।या फिर हर बार मुझे यूँ ही खटना होगा।श्रम के अधिकार के लिए लड़ना होगा।जिज्ञासा ने रूप धराप्रकट हुई वसुंधराबोलीऐसे घबराता क्यों हैजो अमूल्य है उसका मूल्यलगाता क्यों हैमुझे देख मैं सम्पूर्ण जगत को धारण करती हूँनिज श्रम से रचती हूँ गढ़ती हूँतुम्हारे सरीखे कितने ही पर क्या मैंने कभी उसका मूल्य चाहाअधिकार मांगामेरी तृप्ति को स्वतः हीतत्पर है नदिया,झरने,बादल,सागर,सावन और न जाने ऐसे कितने ही।मुझसे अलग नही है तूगौर से देख अनुभव करखुद में मेरी तानमेरी तरह अमूल्य हैतेरा श्रम और उस श्रम से उपजी मुस्कान।।देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”
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बहुत ही खुबसूरत रचना है सर
Bahut hi khoobsurat kavita👍👍
धरती एवं मजदूर की सहनशीलता….विवशता….बेबसी…..का बेहद खूबसूरत चित्रण….
बहुत खूबसूरत ………भाव प्रवाह का जबाब नहीं !
bahut sahi kaha janav …… behad sunder….