हम परदेसी हो गएचले थे रोटी की तलाश मेंकहाँ के थे कहाँ के हो गएहम परदेसी हो गएउलझे इस कदर इस तानेबाने मेंबेवफा बेमुरव्वत इस जमाने मेमिला किसी हसीन का दामनदामन थाम के सो गएहम परदेसी हो गएचलते चलते इस जिंदगी की शाम हो गईवो बचपन की यादें किसी के नाम हो गईबिछड़े अपने वतन से इस तरहन जाने कहाँ खो गएहम परदेसी हो गए
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बहुत सुंदर रचना आपकी चतुर्वेदी जी …..
हमारी रचना.. सुलह… को भी पढ़कर अपना अमूल्य प्रतिक्रिया दें।
अवश्य आप हमारी साहित्यिक संस्कृति की आदरणीय धरोहर है
आपके अमूल्य विचार एवम प्रतिक्रिया से ही हम सभी युवा कवियों को मार्गदर्शन मिलता है
हम आपकी सभी रचनायें पढ़ते हैं परन्तु प्रतिक्रिया देने हेतु हम स्वंय को असमर्थ समझते हैं
बस इतना कह सकते हैं आपकी रचनाओं से हम स्वयं को गौरान्वित महसूस करते हैं कि इन कवियों के तारामंडल समूह में मुझ खद्योत को भी जगह प्राप्त है
आपका एक बार पुनः आश्रीवाद प्राप्त हो
धन्यवाद
आपका अपना चहेता कवि
कृष्णा चतुर्वेदी
अति सुन्दर…..कृष्णाजी….मुझे ऐसा लगता की मैंने रचना पहले पढ़ी है….आप ने दुबारा से पोस्ट की क्या…
जी नही शर्मा जी पहली बार प्रतिस्थापित किया है
बहुत खूबसूरत रचना
धन्यवाद मुक्ता जी
Bahut Sundar…read my poems, “अपनी हंसी को भूल” , “नहीं हो तुम कमज़ोर” …
बहुत ही सुन्दर रचना
Apni jadon se kat jaane ki peeda jhalakti hai. Well done.