रोज़ हो रहा चीरहरण,पर बचाने, कोन है आएगा?उठो, बनो वीरांगना, खुद को ही सम्भलना होगा,मूक बने इस समाज में खुद को ही बचाना होगा|इस समाज से क्या उम्मीदें रखनी,जो हो चुकी है बहरी सी, यहाँ ?चाले नित नई चलते शकुनि,दुःशाशन का साथ देने को जहाँ|ऐसे लोगों से क्या उम्मीदें रखनी,जब आँखे मूंदे है सभी?होती परवा समाज को अगर,न होती घटनाओ की पुर्नावृत्ति कभी|किस से रखे उम्मीदें यहाँ,खबरें भी हो, बिकाऊ जहाँ?किसे, कहाँ, फरक पड़ता,किसी की पीड़ा से यहाँ|उठो, सबल बनो,नहीं हो तुम कमज़ोर?बस अबला, कह कह,बना रखा तुम्हे कमज़ोर|पहचानो अपनी शक्ति को,क्यों भूल बैठे झाँसी की रानी को?जिसने लोहा ले लिया था अंग्रेजो से,तो क्या तुम न लड़ पाओगी घर के ही दानवों से?अनु महेश्वरीचेन्नई
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अति सुंदर अनु जी …….नारी को अपने अंदर की शक्ति को जगाने की पूर्ण आवश्यकता है !!
Thank you, Nivatiya ji…
सही कहा आपने ।हम इतने भी कमजोर नहीं है। जिस दिन हम सब अपनी शक्ति का उपयोग कर जबाब देने लग जायेगे उस दिन से कोई हमारा बाल भी बाँका नहीं कर सकता। बहुत खूबसूरत रचना।
Thank you, Bhawana ji….
बदलते वक्त के साथ कलियुग का पांव फैलना शुरू हो गया है… आप का कथन बिलकुल सत्य है… बहुत सारे उदाहरण हमारे पास है। अब कमर कस लेने की बारी है।
Thank you, Bindeshwar ji…
Bilkul sahi soch. Pratikaar se hi rasta niklega…….
Thank you, Shishir ji…
bilkul sahi kaha aapne….aurat kamzor nahin hai….bas nishchay ki kami hoti kabhi kabhi….
Thank you, Sharma ji…