मेरे अन्दर की लेखिका,
मुझे जला रही है।
कई बार बैठे हुए ,सोते हुए
यूँ लगता है
जैसे फिर कोई दामिनी,
मुझे पुकार रही है।
कहने को कुछ ,
कलम विवश हो जैसे ।
शब्द स्तब्ध है ,
सहमे हुए है ऐसे।
कागज भी शर्मिंदा है ,
स्वयं पर आवरण ओढ़कर ।
न्याय क्यों मौन है अब भी,
पापियों का नंगापन देखकर।
कृत्य घिनौने करते समय,
क्यों अधर्मी ईश्वर से नहीं डरते।
आत्मा को कलंकित करते समय,
मंदिर परिसर को भी नहीं छोङ़ते।
राजनीति के नाम पर न जाने कितनी असीफा की,
हर दिन बलि चढ़ती रहेगी ।
कब तक समाज तमाशा देखेगा,
कब तक अदालत बलात्कारियों को बरी करती रहेगी।
देश में हमारे न्याय पर ही ,
बङ़ा प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है ।
क्यों कह रही हूं ऐसा?
क्योंकि बेटी के लिए आवाज उठाने वाले पिता का थाने में कत्ल हुआ है।
कवियित्री -आस्था गंगवार
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अति सुन्दर विचार
उत्तम रचना आस्था जी
धन्यवाद
वर्तमान परिदृश्य की भावपूर्ण सार्थक अभिव्यक्ति।
बहुत धन्यवाद आपका
न्याय अदालतों तक ही सीमित नहीं है…हम अपने कर्मों के खुद न्यायधीश हैं….जब तक हम अपने कर्त्तव्य का सही पालन नहीं करते…धरम का सही मतलब नहीं समझते ये त्रुटियाँ दूर नहीं हो सकती….सब के सब भागीदार हैं इसमें….
ठीक कहा आपने
बहुत ही सुन्दर रचना।
धन्यवाद आपका
बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति ……संविधान और कानून बनाने वालो ने भी अपनी चर्चा में स्पष्ट किया था और सचेत किया था कि हमारे देश का क़ानून कठोर एवं लचीला दोनों तरह से विश्व में सर्वश्रेष्ठ है, लेकिन इसकी सार्थकता इस बात पर निर्भर करेगी हम लोग इसका उपयोग करे या दुरूपयोग, सकारात्मक या नकारात्मक !!
अब इसमें जिम्मेदारी किसकी बनती है यह हमे सोचना है , अपने इर्द-गिर्द हम कैसा वातावरण तैयार करते है, मात्र कानून को दोष देकर हम जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते !
Peeda se mian sahmat hun……….