चंदन की लकड़ी समझ, मैं बबूल घीसता रहा मूर्खता थी मेरी, जो उसूल पीसता रहा चापलूसी, ठग बजारी से, कहाँ तक बचियेगा जिसे वाटर प्रूफ समझा, वह भी रीसता रहा।अपने आप को उनके सांचे में ढालना आ गया हम तो नाहक बेवकूफ़ बने रहे इस जमाने में भला हो उनका जिनकी वजह मुझे चलना आ गया।
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व्यंग्यपूर्ण सुंदर अभिव्यक्ति।
सुक्रिया मित्र
सुंदर पंक्तियां है बिंदु जी……………
तहे दिल आभार
sundar rachna….
बहुत बहुत धन्यवाद
बहुत ही सटीक व्यंग है…..दुसरे पद को मैंने कुछ यूं लिखा है…लगता आप मिस कर गए लिखते कुछ…
अपने आप को उनके सांचे में ढालना आ गया
हम तो नाहक बेवकूफ़ बने रहे इस जमाने में
भला हो उनका जिनकी वजह मुझे चलना आ गया।
खुदा खैर करे जो आप जैसे लोग मार्ग दर्शन कराये…. बहुत बढ़िया लगता है।
बहुत ही खुबसूरत। ख्याल बदलिये,दिल के आरमां रचना भी पढ़ी व भी सुंदर रचना है सर। पर उस पर comment नही जाए रहा है।