।। मैं माँ केवल माँ ।।भरी दोपहरी तपती गर्मी में पसीना बहाती ।महल नहीं तो कुटिया की ही छाँव देना चाहती ।तार-तार चीथड़ों से लाल को लू से बचाती ।खुदा की प्यास भूल,सपनों के पतंग उड़ाती ।मैं माँ केवल माँ ।।निर्लज शराबी पति का सोच दिल धड़काती ।क्या समेटूं क्या खरीदूं?यही सोच सताती ।बिन थके पत्थरों पर चोट लगाते जाती ।मैं माँ केवल माँ ।।चलती हथौड़े की हत्थी शायद ढाढस थी बंधाती ।कोमल तो है कमजोर नहीं यही याद दिलाती ।फिर कुछ सोच पत्थर दिल के लिए आँसू बहाती ।पत्थर तोड़ना सरल पर वही दिल कैसे पिघलाती ?ढीठ फिर लाल के उज्जवल भविष्य के स्वप्न सजाती ।मैं माँ केवल माँ ।।।।मुक्ता शर्मा ।।
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माँ के बारे में जितना भी लिखा जाये या कहा जाए वह बहुत ही कम है
माँ होती ही ऐसी है। खुद को तकलीफ में रख कर हमें दुनिया की सारी खुशिदेती है ।बहुत ही सुन्दर रचना।
बहुत-बहुत धन्यवाद प्रिय भावना कुमारी जी
माँ को समर्पित भावों के आगे सब भाव निरर्थक हैं…. हर शब्द ‘माँ’ शब्द से छोटा है…अप्राप्य है उसके आगे……
धन्यवाद c.m.Sharma ji
बहुत सुंदर मार्मिकता ली हुई रचना है आपकी………..
बहुत-बहुत धन्यवाद madhu tiwari ji
माँ की मनोभाव को आपने सामने किया है… बहुत बढ़िया
आभार bindeshwar Prasad Sharma ji
Bahut Sundar rachna….
Any maheshwari ji
प्रशंसा के लिए बहुत धन्यवाद