कुछ बन जाने की चाहत, मन में लिए,अपनों से कितनी दूर निकल जाते है, लोग,वक़्त के हाथो कैद, बिना रुके बस चलते रहते,कभी कभी खुद को भी भुला, सपने को बस जीते,ऐसे में, सफलता अगर मिल भी जाती है कभी,भीड़ भी रहती, पर अजनबी से रहते है सभी,अपनों से दूर, लोगो की भीड़ में अक्सर,निर्जन सा जीवन, खाली सा कुछ अंदर,चेहरे पे एक अनजान सा चेहरा ओढ़े,अपनी हंसी को भूल,खुद से भी, कितने हो गए दूर….. अनु महेश्वरीचेन्नई
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यथार्थ है। आधुनिक जीवन शैली मनुष्य को स्वयं से बहुत दूर ले जा रही है।
Thank you, Davendra ji…
सुंदर अभिव्यक्ति।
Thank you…
Very true Anu. This is today’s bitter reality.
Thank you, Shishir ji…
बिलकुल सही कहा आपने सराहनीय रचना
Thank you, Bhawana ji…
sahi….steek………anuji….
Thank you, Sharma ji…
बहुत सुंदर रचना है अनु जी
Thank you, Madhu ji…
अच्छी रचना
Thank you, Bindeshwar ji…
Sundae Rachna aapki
Thank You, Abhishek…
बहुत खूब कहा आपने
Thank you, Krishna…
अति उत्तम
Thank you, Rakesh ji….
इस अंधी दौड़ में होठों पर से हंसी और हमारे जीवन के सुनहरे पल हमसे छीन जाते हैं।
Thank you, Poddar ji…