आज मेरी लेखनी में,भावना का ज़ोर है।एकांत में हूँ मैं लेकिन,हर तरफ़ बस शोर है॥धीमे-धीमे चल रही है,लेखनी कुछ सोच कर।लिख चुका, न मिट सकेगा,यह विचार हर रोज़ कर॥क्या उचित है क्या नहीं,ये द्वंद्व मन में चल रहा।ध्यान एकल करना चाहा,पर ये मन चंचल रहा॥मन भले स्थिर रहे,व्याकुलता चहुँ ओर है।आज मेरी लेखनी में,भावना का ज़ोर है॥
यह उसे आभास है कि,भूल अब ना माफ़ हो।कर्म तो मैले रहेंगे,मन भले ही साफ़ हो॥सत्य और मिथ्या का अंतर,फिर समय पर छोड़ कर।लेखनी फिर चल पड़ी,बंदिशें सब तोड़ कर॥‘भोर’ का एहसास है,पर उर ज़रा कमज़ोर है।आज मेरी लेखनी में,भावना का ज़ोर है॥©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’अन्य रचनाओं हेतु www.bhorabhivyakti.tk पर जायें। धन्यवाद!Bhor Abhivyakti
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सुन्दर कविता .
बहुत-बहुत आभार..!
बहुत सुन्दर अंतर्मन के भावों को पिरोया है…..पर यह पंक्ति विरोधाभासी लगती है…”मन भले स्थिर रहे,
व्याकुलता चहुँ ओर है”…
टिप्पणी हेतू धन्यवाद, जो पंक्ति आपको विरोधाभास दिलाती है उस पंक्ति का उद्देश्य सफ़ल हुआ लगता है क्योंकि यह पंक्ति अनेकों अर्थ लेकर चलती है। जहाँ एक ओर यह मन के विचार और दुनिया के बीच की कश्मकश दिखाती है, वहीं दूसरी ओर इस ओर भी इशारा करती है कि एक व्यक्ति अपने आस-पास की हर चीज से प्रभावित होता है। वह अंदर से शान्त रहने की कोशिश कर सकता है परंतु इस संसार से वह इतना अधिक जुड़ा हुआ है कि मन पथ से भ्रमित हो ही जाता है। मुझे उम्मीद है कि शायद इस से आपका विरोधाभास कुछ तृप्त हुआ होगा। यूँ ही साथ देते रहिए, सिखाते रहिए। धन्यवाद!
अति सुन्दर रचना है सर
बहुत-बहुत धन्यवाद आपका, किन्तु मैं ‘सर’ जैसी किसी उपाधि को अपनाने का अभी तक हक़दार नहीं हुआ हूँ। 🙂 मुझे आशा है आपका साथ यूँ ही बना रहेगा। पुनः आभार।
बहुत खूबसूरत………रचना में भावनाओ का जोर नजर आता है …………..बब्बू जी के कथन पर गौर करे ……..हो सकता है आपका मंतव्य कुछ और रहा हो स्पष्ट करेंगे तो अच्छा लगेगा !!
बहुत-बहुत आभार। मैंने अपनी ओर से एक कोशिश करी है अपने कुछ विचार रखने की, आपकी भी कोई राय हो तो अवश्य कहें। यूँ ही साथ देते रहें, सिखाते रहें। धन्यवाद!
सुन्दर रचना बधाई !
एक रचना के माध्यम से “सरयू की धार ”
जाने क्यो अपने कृत्यों पर,लोग बाग इतराते /
ठहरी नदियों की उस धारा में, ही लोग नहाते।
सरजू की निर्मल धारा बह रही नहीं वे जाते/
दर-दर भटक रहे बनरारी, हमराही नही पाते।
स्वच्छ समन्दर की लहरों में गोता नहीं लगाते/
घडियालो की पूछ पकडने में प्रभु पिता- बहलाते।
सुवह-साम पाथर पूजते माँ-बाप घर भरमाते/
‘मंगल’ कहता सुना मनोहर माई बाप गुण दे जाते।।
बहुत सुन्दर रचना.