क्यों खड़े हो जाते होमेरे सम्मुख अपनत्व का मुखौटा ओढ़ेतारीफों के पुल बांधतेझूठी तारीफों के पुलजिनके पार तुम्हारीअनगिनत अतृप्त आकांक्षाएंमेरा परिहास करती सीमेरे अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाती ।।क्यों खड़े हो जाते होमेरे सम्मुखप्रेम की व्याख्या लिएजिन पर तुम स्वयं खरे नही उतरतेथोपना चाहते होझूठ और फरेब में डूबेसम्मान के लुभावने शब्दजिनमे केवल शोर हैसंगीत नही ।।क्यों खड़े हो जाते हो मेरे सम्मुखमर्यादा और परंपराओं की दीवार लिएजिनकी ओट में छिप जाती हैतुम्हारी दुर्बलतातुम्हारा असंयम,तुम्हारा अभिमानमुझे पाने की तुम्हारी अभिलाषानिचोड़ लेती है मेरा बूंद बूंद रक्तक्षत विक्षत मेरी आत्मा के अनेकों रिसते घाव तुम्हे दिखाई नही देते।।क्यों खड़े हो जाते होमेरे सम्मुखसहानुभूति औरसंवेदनाओं के पुष्प लिएजिनमे मात्रआकर्षण है रंगों कासुगंध नही हैसमर्पण कीपाना चाहते होस्पर्श करना चाहते होपर दम तोड़ देते हैंतुम्हारे सारे प्रयत्न देह की चौखट पर हीछू नही पाते होकभी हृदय कोजान नही पाते होअंतर्मन को,देख नही पाते होमेरा अनुपम सौंदर्यअद्भुत श्रृंगार,जो सिर्फ तुम्हारे लिए है ।।क्यों खड़े हो जाते होमेरे सम्मुखपाश्चाताप और आत्मग्लानि के अश्रु लिएजो छलक उठते हैहर बारमेरे विध्वंस के बादतुम्हारी आँखों से,बढ़ जाती हैमेरी वेदना मेरी पीड़ाकई गुनातुम्हे इस तरहपराजित,लज्जित देखआखिर मैं ही तो हूँतुम्हारी शक्तितुम्हारा सौंदर्यकिंतु मेरे अस्तित्वपर तुम्हारा यह मौनस्वयं पतनहै तुम्हाराऔर कारण हैमेरी पीड़ामेरी वेदनामेरे दुखों कामैं “अपराजिता”पराजित हूँतुम्हारे झूठ से,दोगलेपन से ।। देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”
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BAHUT SUNDER VHAWON SE PARIPURN.
वाह खूबसूरत भावपूर्ण है
आत्मावलोकन को प्रेरित करती…बेहद सुन्दर कृति….
बेहद खूबसूरत रचना भावनाओं से भरा हुआ ।
Honesty and Love are complementary comes out so very well in this work. Great Devendra …..
मन की गहराइयों से निकले सुंदर पवित्र वचन ……………..!!