मेरे हो जाना जैसे भी,मुझको पा लेना कैसे भी,लेकिन मन के अंतर-तम मेंकोई खाली जगह न रखना,मुझको अपना कभी न कहना,वो एक सुंदर कोना दिल का,जिस पर मेरा नाम लिखा हैवह भी तुम हो सच को जानो,मैं क्यों हूँ यह भी पहचानो,मुझको अपना जब कह दोगेदिल के दो हिस्से कर दोगे,तुम ही दोनों लेकिन तुमकोअब ये सुंदर भ्रम होगा,दो हिस्सों मे बंट जाने कातुमको न कोई गम होगा,खुद से खुद को मांगोगेअलग अलग पहचानोगे,अरमानो के सुमन सुगंधित,मानस तट अति-उर्वर ऊर्जित,नित्य नई आकांक्षा होगीप्रतिपूर्ण पर तृप्ति न होगी,प्रेम-रज्जु से बंधा हुआ मैंनैन-शरों से सधा हुआ मैं,निज मन से क्या भाग सकूंगास्वयं स्वार्थ को त्याग सकूंगा,तुम मुझसे आस लगाओगेउत्सव उल्लास मनाओगे,पर जब पूरी आस न होगीमेरी प्रतिमा पास न होगी,बिखरोगे टूट जाओगेकैसे खुद को समझाओगे,रिक्त हुआ जो तुममे तुमसेभ्रम के तम में,भय से भ्रम से,विरह बवंडर का नित आश्रयदेह दृष्टि का अतिशय क्षय,प्रेम व्यथा का कारण हैअनुचित यह उदाहरण है,चिरानंद सर्वत्र सकल जोमाया के विक्षेप प्रबल कोकाट नही पाता हैप्रेम विरह हो जाता है।किन्त नही ये नियति प्रेम की,अन्तर्मन है दृष्टि दैव कीनिज प्रभुता का परिचायक हूँमैं सदैव सत्य सहायक हूँ,मेरे संग प्रेम डगर पर चलअनुभव कर अम्बर जल भूतल,कण कण से खुद को जोड़ जरातेरी छवि है यह वसुंधरा,सागर तुम ही गागर तुम हीकरुणा तुम ही आदर तुम ही,कहीं भेद नही कहीं खेद नहीकहीं व्याधि नही कहीं स्वेद नही,तुम अश्रुधार तुम ही पीड़ातुम रणी रथी तुम ही क्रीड़ा,जान सको पहचान सकोतुम ही सृष्टि यह मान सको,विकसित करने को यही दृष्टिमैं हूँ जग है और है सृष्टि,अपना कहना सीमाओं मेंबंध कर रह जाना होता है,अपनापन तो जल धारा में मिल कर खो जाना होता हैयही तुम्हारा कुशल क्षेम हैयही नियति है यही “प्रेम” है। देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”
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Behad sundar or saty prem ko paribhashit karti ……
behtreen rachana…….. sundar bhav hai…..
बेहतरीन कविता , सुन्दर भाव
ह्रदय के उदगार को सुंदर शब्दों में बांधा है आपने ……….अति सुंदर !
BAHUT SUNDER BHAV.
ati sundar……………
अति सुन्दर रचना।