पैसोँ की ललक देखो दिन कैसे दिखाती हैउधर माँ बाप तन्हा हैं इधर बेटा अकेला हैरुपये पैसोँ की कीमत को वह ही जान सकता हैबचपन में गरीवी का जिसने दंश झेला हैअपने थे ,समय भी था ,समय वह और था यारोंसमय पर भी नहीं अपने बस मजबूरी का रेला हैहर इन्सां की दुनियाँ में इक जैसी कहानी हैतन्हा रहता है भीतर से बाहर रिश्तों का मेला हैसमय अच्छा बुरा होता ,नहीं हैं दोष इंसान काबहुत मुश्किल है ये कहना किसने खेल खेला हैजियो ऐसे कि हर इक पल मानो आख़िरी पल हैआये भी अकेले थे और जाना भी अकेला हैतन्हा रहता है भीतर से बाहर रिश्तों का मेला हैमदन मोहन सक्सेना
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bhut khoobsurat rachana …………madn ji……..
meri rachana …….kavita hai…… ko padhkar apni pratikriya de….