मैं जीवन के दुर्लभ दर्पण मेंढूँढ़ रहा हूँ तेरी छवि सुन्दरप्रकृति की भी पावन परछाई मेंखोज रहा हूँ कृति-चिन्ह निरंतर। किस किसको खोजूँ, किसको पाऊँक्षीण-शक्ति-स्त्रोत युक्त जीवन मेंढूँढ़ रहा हूँ तेरी छवि सुन्दरमैं जीवन के दुर्लभ दर्पण में मन वीणा तेरे संकेतों सेकरती साधना का मात्र प्रयासपर खंड़ित तारों में खो जाताहर साध्य स्वर का अटूट विश्वास कौन गीत मैं किस लय में गाऊँसरगम के फैले सूनेपन मेंढूँढ़ रहा हूँ तेरी छवि सुन्दरमैं जीवन के दुर्लभ दर्पण में बनने खुद मैं भी तेरी प्रतिमापाले हुआ हूँ मैं कब से आसपर तू चतुर चालाक कलाकाररूप अनूप का करता उपहास किस युक्ति से मैं मुक्ति पा जाऊँयही सोचता रहता हूँ मन मेंढूँढ़ रहा हूँ तेरी छवि सुन्दरमैं जीवन के दुर्लभ दर्पण में व्याकुल हूँ कुछ छवि अंकित करनेप्राणों के चमकीले दर्पण मेंपर इक जरा-सी रेख ना उतरीआसूँ थामे आँखों के मन में शून्य पटल पर अब शून्य उकेरेविषधारा जब उफने तन मन मेंढूँढ़ रहा हूँ तेरी छवि सुन्दरमैं जीवन के दुर्लभ दर्पण में बह जाती है, धुल मिट जाती हैयह अपने ही चंचल चिन्तन मेंऔर दहकती साँसों के अंदरजलती रहती है आस तपन में प्यासे घट की क्या प्यास बुझाऊँव्यथित प्राण पा मटमेले मन मेंढूँढ़ रहा हूँ तेरी छवि सुन्दरमैं जीवन के दुर्लभ दर्पण में …. भूपेन्द्र कुमार दवे00000
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बहुत ही सुन्दर रचना। हमारी रचना मायका बनाए रखना पर अपनी प्रतिक्रिया दें।
Maanav jeevan ki anishchitaaon se utpaan hone vaale virodhabhaason ko bahut sundar shabd die hai aapne Bhupendra….