नयी उम्र की नयी फसल(ग़ज़ल ) नयी उम्र की नयी फसल , बहकी हुई भटकी हुई नस्ल . नस्ल तो है यह आदम जात , भूल गयी जो अपनी ही शक्ल . भौतिकता औ आधुनिकता ने , कुछ इस तरह दिया इसे बदल . शराफत ,तहजीब और मुहोबत , दिल नहीं इनमें पर काफी अक्ल . विदेशी भाषा ,संस्कृति और लिबास , पूरी तरह गोरों की करते है यह नक़ल . यह लिखेंगे वतन का मुस्तकबिल ! वतन की इज्ज़त को करते है धूमिल . यह नस्ल तो सगी नहीं अपने माँ-बाप की , उनके अरमानो/ज़ज्बातों को देते है कुचल . बचाना है गर देश का भविष्य तो जागना होगा , ज़हरीली उग रही इस पौध को जड़ से उखाड़ना होगा. और पैदा करनी होगी देशहित में नयी उपयोगी फसल.
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बहुत ही सुन्दर रचना
सुन्दर….पर ग़ज़ल नहीं बनती है जो आपने ग़ज़ल लिखा है तो…..
नकारात्मक प्रभाव पड़ता है इससे यदि आप सकारात्मक परिवर्तन चाहते हैं तो सकारात्मक लेखन की आवश्यकता है क्योंकि सकारात्मकता से ही सकारात्मकता उत्पन्न हो सकती है नकारात्मकता से नहीं।
बाकी सुंदर प्रयास लिखते रहिये शुभकामनाएं
bhut khoobsurat kavita………
बहुत- बहुत धन्यवाद प्रिय मधु जी ,इस होंसला अफजाई के लिए.