यूँ ही तुम चुप रहते हो बात करो तो अच्छा लगेमंदिर से बाहर आकर साथ चलो तो अच्छा लगे।पत्थर की मूरत हो तराशी मुस्कान से सजे होअसली मुस्कानों से कभी निहारो तो अच्छा लगे।माना कि बहुत पाप किये होंगे अनजाने में मगरकुछ मेरे पुण्य का भी हिसाब रखो तो अच्छा लगे।हिम्मत से जूझता रहा हूँ तूफान की लहरों सेअब मेरी किश्ती तुम्हीं बचा सको तो अच्छा लगे।यूँ रह रह कर खींच तलवार मुझे डराया ना करोइक बार कातिल की तरह वार करो तो अच्छा लगे।तुमको गरीबों का मसीहा मैं भी कहता रहा हूँमेरी इस झोपड़ी में भी साथ रहो तो अच्छा लगे।इस बीमार को तुम दुआ दवा कुछ भी ना दो लेकिनकुछ देर तुम पास आकर बात करो तो अच्छा लगे।वीराने में खिला फूल था मैं अब मुरझा चुका हूँतुम्हीं अपने हाथों से यह तोड़ो तो अच्छा लगे।…. भूपेन्द्र कुमार दवे00000
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Beautiful poem Dave JI
Bahot khoob
बहुत सुन्दर…..अंतिम पंक्ति ऐसे हो तो लगता पूर्णता प्रदान करती है …
अपने हाथों से तोड़ मिटटी में मिला दो तो अच्छा लगे
सुझाव अच्छा है पर मात्रा बढ़ जाती है।