‘ग़ज़ल’ को कौन रख सका है, पहरे में ‘अरुण’ पलक झपकते बदल लेते हैं रुख ‘रदीफ़-काफिये’बया ने मुश्किलों से बनाया ‘घरौंदा’ अपना तूफां ने इक पल में उड़ा दिए तिनके-तिनकेछोड़कर चप्पू, ‘बूढ़े हाथों’ में, तुम निकल लिये भंवर से कश्ती लगेगी किनारे कैसे?अरुण कान्त शुक्ला 17/1/2018
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dil kaa dard bayan karte bhaavuk shabd……………..
आप को आपके परिवार को जो अभी चोट लगी है उसका दर्द उभर आया है रचना में…पर मैं ये भी जानता हूँ की हाथ बूढ़े हो गए हों बेशक पर उनमे चोट खाने के बाद और ताकत आ गयी है…जब मकसद होता है तो हौंसले बढ़ जाते हैं….और बहुत बार मैंने देखा है की मुश्किल वक़्त में इंसान में बोझ उठाने की ताकत आ ही जाती है….साहित्यक परिवार आप के साथ है….कभी भी आप मेरी इ-मेल पे मुझे कांटेक्ट कर सके हैं….मेरी प्रभु से प्रार्थना है की आप सब के सर पे अपना हाथ रखे….
bahut hi bhaavuk rachna, Arun ji…
भावुक कर गयी आपकी रचना अरुण जी…………भगवान आपको दुख से उबरने की असीम शक्ति प्रदान करें।
आपके ह्रदय की पीड़ा साफ़ झलकती है शब्दों में …….सत्य कहा आपने कौन बाँध के रख सकता है …………नियति का फेर है ……यही सत्य है जो यक़ीनन बहुत ही कड़वा भी है ……ईश्वर आपको इस असहनीय दर्द से उबरने का बल प्रदान करे ……समस्त साहित्य परिवार आपके साथ है ……..यदि व्यक्तिगत तौर पर हमे किसी योग्य समझे…………. निसंकोच आदेश कर सकते है !
शब्द नहीं हैं क्या कहें……बस भगवान् से मेरी विनती है
कि वो सब पर अपनी कृपा बनाये रखे…..