जुबां पर क्यों तुम्हारे अब , मेरी कोई बात नही आतीमगर तुम्हारी याद के बिन , हमारी कोई रात नहीं आती
अंग्रेजी में कभी जो तुम , दिखाती हो हमें नखरेनासमझ हम यूँ हँसते है , कि हमे अंग्रेजी नही आती
खता क्या मेरी ऐसी थी , जो तुम दिले दरार कर गएमौन हो दिल अब रोता है , कोई आवाज नही आती
तुम जो रुखसत हो गए , तो खिन्न सब सार हो गएकोई भी सुर न मिलता अब , मधुर कोई तान नही आती
वफ़ा की आड़ में तुम जो , बेवफाई का खेल खेलती होदिले पत्थर को तुम्हारे , कभी लज्जा नही आती
फटे रुखसार हो गए , कोई अब मुस्कान नही आतीफड़कता दिल ये रहता है , मगर कोई जान नही आती
कवि – मनुराज वार्ष्णेय
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बहुत खुबसुरत मनुराज …………अच्छे भाव प्रस्तुत किये है ………अंतिम दो शेरो में मामूली सुधार करे तो आपकी ग़ज़ल और बेहतरीन हो सकती है………जैसे शब्द “लज़्ज़ा” काफिया से नहीं मिल रहा है और अंतिम में “जान” शब्द शेर के भावार्थ अनुकूल नहीं है ………कोई उचित पर्याय प्रयोग करे तो अच्छा है ……!!
प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद निवातिया जी
ati sundar…………
धन्यवाद babu cm जी ….
सुंदर रचना आपकी मनुराज जी…..
धन्यवाद काजल जी .
khoob manuraj…………. sundar bhav………
धन्यवाद मधु जी