मैं औरत हूँकमजोर,लाचार,बेजारकहाँ जीती मैं ज़िन्दगी अपनीकहाँ लेती साँसे खुद सेमेरी साँसो से भी हैं सबको इनकारमेरी साँसे तो होती हैकिसी ना किसी का उपकारमैं औरत हूँसदियों से चली आ रहीपुरुश्वाद का शिकारयहाँ अपने ही करते मेरा तिरस्कारमेरा जन्म लेना भीकहाँ किसी को स्वीकारगर दो कदम चलूँ भी तो चलूँ किधरघर की चौखटों को भी हैखुद के लांघे जाने से इनकारमैं औरत हूँडरी-सहमी सीखुद कहाँ कोई पहचान मेरीकभी पिता का नामतो कभी पति का सिन्दूररिस्तो के बंधन में बंधने को मजबूरहे ! विधाता तूने जन्म क्यों दियाआखिर क्या है मेरे होने का कसूरमैं औरत हूँपुरुषत्व की पहचानपुरुष समझते मुझे सजावट का सामानयहाँ कहां किसी को मेरा मानकहां मिलती है मुझे पहचानकहाँ होता मेरा सम्मानहे ! विधाताक्यों होता मेरा अपमानपुरुषो से ही मिलती रहेगीक्या मुझे मेरी पहचान———अभिषेक राजहंस
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स्त्री विमर्श पर रचना गजब लिखा आपने………..
धन्यवाद आपका
युग युगों से नारी जाति उपेक्षा की शिकार रही है। बहुत सुन्दर प्रस्तुति अभि जी… थोडी दूसरे रघनाकारों की प्रस्तुति भी देखें।
धनयवाद शर्माजी
आपकी बातों पे गौर करूँगा
नारी का अनादर उसकी उपेक्षा हर युग में होती रही है। बहुत ही कमाल की रचना है।
तहे दिल से शुक्रिया भावना जी
बहुत ही सुंदर रचना…. सुंदर भाव……
बस समय अब बदल रहा है नारी की जगह नर
लाचार, बेचार हो रहे हैं …..😜😜😜😜
सही कहा आपने नर भी अब लाचार हो रहे है
क्योंकि आप लोग काफी मजबूत हो गए हो
हाहाहा—-हैं ना काजल जी
Ati sunder……
सुन्दर भाव ……समय के साथ बदलाव का आना स्वाभाविक है ।अति सुंदर।
सुन्दर भाव से सजी रचना……….
Ling bhed par chod karti achchi rachna Abhishek……..