तन्हां इस शहर में नहीं कोई शख्सतन्हाई आये भी तो कैसे आये उनके पाससुबह होती है जिनकी, शाम की रोटी की फ़िक्र के साथ ,तन्हां इस शहर में नहीं कोई शख्स ‘अरुण’फ़िक्र-ओ-गम की बारात है सबके साथ,पीठ पर लादे प्लास्टिक का थैला, नहीं वो अकेलाभोंकते कुत्तों की फ़ौज, पीछे पीछे है उसके साथ,’सुबह’ जब भी होगी, बहुत खूबसूरत होगीसोते हैं हर रात इस ख्वाहिश के साथ,प्यार-ओ-रोमांस के गीत भी गायेंगे एक दिनअभी तो खड़े हैं मजलूमों के साथ,अरुण कान्त शुक्ला21/12/2017
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Bhai vaah Arun ji. Kya dard sametaa hai. Vyang bhi bhavuk ban pada hai rachnaa me ……
लाचारी, बेबसी और विषमताओं में उलझी जिंदगी का मूर्त चित्रण ………अति सुंदर अरुण जी ….!
बेहतरीन
वाह
क्या बात है।
Bahut hi sundar….
वाह…लाजवाब….बेहद उम्दा…..
आप सभी को बहुत बहुत धन्यवाद | आप लोगों की प्रशंसा प्रेरणा देती है| आशीर्वाद बनाए रखें|
बहुत सुंदर गजल.
बहुत ही सुंदर……… लाजवाब……!!
behad khubsoorat ….. badi hi pyari ….. bhav bibhor karti rachna.