छोड़ गए बृज कृष्ण, गोपी किस्से खेलें फ़ागकहला भेजा मोहन ने, नहीं वन वहाँ, क्या होंगे पलाश?नदियों में जल नहीं, न तट पर तरुवर की छायागोपियाँ भरें गगरी सार्वजनिक नल से, आये तो क्यों आये बंसीवाला?घर में रहें राधा डरी डरी, सड़कों पर न कोई उनका रखवालाअब तो आ जाओ तुम, का न हुई बड़ी देर नंदलाला?मथुरा में था एक ही कंस, बृज में हो गया कंसों का बोलबालाकब सुधि लोगे श्याम तुम, सुन लो राधा का नाला?अरुण कान्त शुक्ला16/12/2017
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अच्छे भाव।
यही विडम्बना भी है।
उचित मंथन आपका शुक्ला जी………!!
शायद श्याम भी आने से कतराने लगे है
देखकर कलयुग की माया घबराने लगे है !!
बहुत ही सुन्दर रचना सर।
आप सभी को बहुत बहुत धन्यवाद ..
बहुत अच्छे भाव आज की स्पष्टता दर्शाती हुई अच्छी रचना।
समसामयिक….लाजवाब कटाक्ष….आत्म मंथन को प्रेरित करती…..
Arun ji, Bahut sundar rachna aapki…
Lovely sarcasm ……..