*मुझे मत बाँधो..*(अतुकांत)मैं,चलतीबहती,तैरती हूँ,उन्मुक्त गगन में।गहरे,छिछले,भावों के सागर में|लहरों के ऊपर,या उसकी तलहटी में।उषा की किरणों में,छिपकर,हौले से,निहारती हूँवत्सल वसुधा को।कभी-कभी,हृदय के,स्निग्ध कुहासे से,खिल उठती हूँ,ओस की बूँद बन।मचल उठती हूँ,उच्छश्रृंख्ल हो,तरंगिणी सी।या नवयौवन युक्तशावक सा।कभी तो,खिल उठती हूँ,विरह में भी।मैं,भावों की सविता हूँ।मुझे मत बाँधों।जी लेने दो!मैं,कविता हूँ।मैं कविता हूँ। -‘अरुण’
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Very nice, Arun ji…
यह प्रतिक्रिया अनमोल है।
आपको नमन
बेहद सुन्दर…..भावों की सरिता कहाँ कहाँ ले जाए लिखने वाला भी अचंभित हो जाता कभी कभी….ये प्रवाह तो निश्चित रूप से बहना ही चाहये आप जैसी कलम से….
सर सादर आभार
Very very nice
धन्यवाद भावना जी
सुन्दर अरुण जी|
अरुण का अरुण को नमन
सुंदर ………
आभार शशिकांत जी
बेहद उम्दा अरुण जी ……..आपकी रचनाओं में भाव प्रवाह देखते ही बनता है ………….!
आपकी पारखी नज़र की नियामत है। नाचीज कुछ भी नहीं।
हौसला बढ़ाने के लिए सादर आभार।
रचना पे इन अनमोल प्रतिकिया देने वाले सभी अग्रजों को पुनश्च धन्यवाद।
बहुत बहुत सुन्दर सी रचना है आपकी।
जी
सादर आभार
Ati sundar Arun …….
धन्यवाद सर