बेसुध-बेफिक्र कुछ ख़्वाब सो रहे हैं,इन्हें सोने दो।अलसाए-सुस्ताये से अँगड़ाई लेते ख़्वाब,इन्हें सोने दो।सुना है ख़्वाबों की आँखें नहीं होती,पर नींद तो इन्हें भी आती होगी,कहने-सुनने की इनकी भी तो कुछ बातें होंगी,इनकी भी तो अपनी सुबह, अपनी रातें होंगी…अबके सोना तो इन्हें अपनी नींदों में न लाना, वक़्त-बेवक़्त इन्हें न जगाना, न बुलाना,न करना इनसे आँख-मिचोली, रहने देना हंसी-ठिठोली..क्योंकि..बेसुध-बेफिक्र कुछ ख़्वाब सो रहे हैं,इन्हें सोने दो।अलसाए-सुस्ताये से अँगड़ाई लेते ख़्वाब,इन्हें सोने दो।
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Nice ………
Thank you sir
वाह…क्या बात है….बहुत खूब….हर ख़्वाब पूरा नहीं होता…और जो बस में नहीं उसको सोने देना ही अच्छा है….पर क्या यह ख़्वाब पूरा होता है किसी का कि उसे ने जगाएं ? ख़्वाब तो बिना पैरों के चलते हैं…बिना परों के उड़ते हैं….
Dhanyawad sir
बहुत बढ़िया गरिमा ………………
Thanks Madhu maam
Sundar rachna…
Dhanyawad Anu maam
गरिमा जी, कविता, भाव सहित बहुत सुन्दर बनी है| पर, सुस्ताए और अलसाए के साथ अंगड़ाई सटीक नहीं बैठता है| मुझे लगता है, इसकी जगह थके-थके अथवा पलकें मूंदे होता तो ज्यादा निखार आता| शेष आपकी इच्छानुसार| बधाई|
Feedback ke liye thanks. Good suggestion
This is one poem where one has to necessarily fit into the heart of the poet to be able to discern the choice of words. ..it’s steeped in a specific field of thought and one must get to the root of that emotion
Nice observation sir