मुझसे न कह इस वक्त तू कहीं और जाने के लिए।कंधा किसी का मिल गया सिर को टिकाने के लिए।वो लोग पत्थर हाथ में लेकर मिलेंगे हर जगह,घर में नहीं है पेट भर कुछ भी पकाने के लिए।।सब लोग शादी में कहाँ चेहरा दिखाने आएँगे?कोई तो हमको चाहिए घर भी बचाने के लिए।।सब देखसुन खा पी के जब ये जिन्दगी हो घाट पर,तब आंत में बस चाहिए तन मन झुलाने के लिए।।यूँ तो सभी के हाथ दिखतीं एक जैसी लाइनें।फिर भी तो अन्तर खोजिये मन को मनाने के लिए।।नववस्त्र भूषण भूषिता निज मन मुकुर की अप्सरा।सबको कहाँ मिल पाएगी उर से लगाने के लिए।।जब पल्लवों ने साथ छोड़ा टहनियाँ नीरस हुईं।कोई तो आ ही जाएगा आरा चलाने के लिए।।व्याकुल नहीं मन में ‘विमल’ है देखकर जग का चरित।सारे मशाले चाहिए भोजन बनाने के लिए।।
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khobbsorat rachnaa Vimal Ji. Bas “तब आंत में बस चाहिए तन मन झुलाने के लिए।।” kaa arth mujhe spasht nahi ho paa rahaa hai.
बहुत खूबसूरत रचना है…..
सब देखसुन खा पी के जब ये जिन्दगी हो घाट पर,
तब आंत में बस चाहिए तन मन झुलाने के लिए।।
मुझे इन पक्तियों का भाव स्पष्ट नहीं हुआ….मुआफी चाहता हूँ……….
उत्तम सृजन …………..शिशिर जी और बब्बू जी का मत उचित है…………!
सुन्दर है, पर इसे और गठाव दिया जा सकता था|
आप लोगों ने रचना को सराहा इस हेतु धन्यवाद| मेरा कहना यह था कि जीवन की अन्तिम बेला आती है व्यंजनों की और भरपेट खाने की आवश्यकता नहीं होती बस इतना चाहिए शरीर भी चलता रहे और मन भी संतुष्ट रहे|