परिंदे जख्मी मिलते है राहो चौराहों पर, पर चौराहों पर भीड़ है जिंदा लाशों और दरिंदों कि, की दरिंदों ने साज़िश है फ़िर हुए जख्मी परिंदे ,परिंदे जख्मी मिलते है अब तो घरों कि चिलमन पर ,पर चिलमन दह़क उठी इंसाफ के अंगारों पर ,पर अंगारे भी अब बुझ गये समाज पर लगा कालिक , कालिक लगी मीटती नही गहरी हो जाती हर रोज़ ,रोज़ हर खबरों मे मिलते है ये जख्मी परिंदे ।
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विक्रम जी….मुआफ कीजे…मुझे आपकी रचना दूसरी पंक्ति के बाद बिखरी लगती है…क्या कहना चाहते अस्पष्ट है…आपने रचना में ‘शब्दों’ को आगे ले जाने की कोशिश की है पर वो सही नहीं है…
Haa ye mera esi kavita likhne ka prtham pryas tha akhri shabdo ko wapas se aage laane ka .
Dhnyvad apki ray k liye C.M Sharma ji