जन्नत है कहाँ?जन्नत है कहाँ? जो, किसी को नसीब होगी,जमीं पर बसा सको तो, बसा लो यारोआप दूर कहाँ हुए, एकदम नज़रों के सामने हैं,रूबरू न तो न सही, ख़्वाब में मिलने आते हैं यारोख़ुदा को न बनाने दिया घर दिल मेंमिलने मस्जिद जाना पड़ता है यारोतुम्हें मालूम है, जमीं के मालिक हैं कितने अश्किया (क्रूर)सोचो जरा, आसमां में भी, ये सूराख़ बना रहे हैं यारोमहफूज रहना है कहर से तो, ख़ुदा से भी लड़ना होगासर झुकाकर की फ़रियाद, आज सुनता कौन है यारोअरुण कान्त शुक्ला27/11/ 2017
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आत्म उत्थान…प्रेरक…. बेहद खूबसूरत रचना….
बहुत बहुत धन्यवाद ..शर्मा जी|
Lovely sarcasm has come out on todays’s degeneration Arun Ji .
धन्यवाद मधुकर जी |
बहुत उम्दा …..शुक्ला जी ……….आपकी रचना के सार को दो पंक्तियो में व्यक्त करना चाहूंगा !!
विकास की होड़ में पागल हुए सब कुछ भुला बैठे है
जन्नत की चाहत में खुद से खुद ही को गँवा बैठे है !!
सच कह राहे हैं आप| खासकर हम लोगों के लिए तो विकास और जन्नत दोनों ‘चाहत ही हैं| और, यह क्रम होश संभालने से चला आ रहा है| आपको बहुत बहत धन्यवाद रचना को ध्यान से पढने के लिए और सुन्दर सा कमेन्ट देने के लिए|
हम जिसे छोड़ देते हैं टी
यूँ ही
उसे संजोने का काम किया है आपने
बहुत बढ़िया लगी आपकी रचना।
बधाई स्वीकार करें।
सुंदर