चाँद सितारे छुने का मन करता है मेरा भी,चार अक्षर पढ़कर बन सकते है हम गवैया भी।फिर क्यों कोई कहता है मुझको,छोटकू ,कलुआ, भलुआ भी।रोज मै दुसरो की टेबुल चमकाता हूँ,खेतो मे कुदाल चलाकर,अन्न भी मैं उपजाता हूँ।मेरी किस्मत कौन गढेगा ,यह तो कोई नही बतलाता है।शिखर, गुटका, गर्म चाय की बोली,बस ट्रेन में रोज ही मैं लगाता हूँ।मेरे नसीब में भोजन, दवा, नींद, पढाई नहीं,मैं तो बस बाल श्रमिक कहलाता हूँ।फिर भी अनपढ़ हो कर,दस रूपये की तीन किताब से,हर बच्चों को ज्ञान कराता हूँ।
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सुन्दर रचना आपकी
धन्यवाद।
बेहद भावुक….सन्देश परक…..
धन्यवाद सर।मेरी रचना पढ़ने के लिए ः
The paradox of inequalities in our society has been brought out very well.
बहुत बहुत धन्यवाद सर।
यथार्थ को इंगित कर……भावनात्मक रूप से गहन चिंतन को विवश करती खूबसूरत रचना ………….यह विडंबना ही है की आज तक भी हमारा सभ्य समाज …..बाल श्रम, शिक्षा, महिला अपराध एवं शशक्तिकरण जैसे मुद्दों से ज्यादा अहमियत मंदिर मस्जिद जैसे मुद्दों को देते है .!
धन्यवाद सर।आपने सही कहा सर।हमारा समाज छोटे छोटे बच्चों से बाल श्रम करवाता है।और कभी कभी तो ऐसी चीजें देखने को मिलती है जो हमें सोचने पर मजबूर कर देती है।