* संस्कृति-सभ्यता *संस्कृति मिट रही सभ्यता बढ़ रहामानवता छोड़ मशीनियत गढ़ रहा,भाईं भाईचारा का हुआ बट्टाधार चेहरे पर मुस्कान दिल में तलवार,घर-मकान के स्थान पर भवन बन रहाअब इनसान कंकरीट में ढ़ल रहा,फ़र्श दिवाल की चिकनाहट बढ़ रहीदिल में कड़वाहट बढ़ रही,बड़ पीपल पाकड़ गमले में आ रहेंतुलसी गेंदा को पछाड़ मनीप्लानट नागफनी छा रहें,ध्यान आराधना सब पिछे छूट रहादिखावा के चककर में शान्ति लुट रहा,आज मान सम्मान प्रतिष्ठा का पैमाना बदल रहाधन समपदा सभी को दीवाना बना रहा ,संस्कृति मिट रही सभ्यता बढ़ रहा मानवता छोड़ मशीनियत गढ़ रहा।नरेन्द्र ये दुनिया रोज एक कहानी गढ़ रहा।
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bhut bhut badhiya kavita apki………. meri rachana …parivar…..bhi padhe
बहुत खूबसूरत नरेंद्र जी ……भाव अभिव्यक्ति बहुत सुंदर है ……….कुछ भाषागत वर्तनी त्रुटिया है उनपर गौर करे तो रचनात्मकता और गेयता प्रभावशाली होंगी………..सकारात्मक भाव से आपका ध्यान इंगित कराना अपना कर्तव्य समझता हूँ !
कुछ त्रुटिया जैसे :
“सभ्यता बढ़ रहा” की जगह “बढ़ रही” उचित है
दिवाल का सही – दीवार
समपदा का सम्पदा
ये दुनिया रोज एक कहानी गढ़ रहा का सही वाक्य “ये दुनिया रोज एक कहानी गढ़ रही” होना चाहिए !