💐माता – व्यथा 💐-मधु तिवारीबेटा का वनवास सुनकर, हुई क्या मात व्यथाआज सुनाऊ आपको मैं, दुखभरी उनकी कथाराम के मुख से ही सुनी, कौशिल्या वनवासथर-थर कांपे तन गिरी, प्रभु राम चरण के पासधीरज धरके सुत बदन,बारंबार निहारीगदगद वचन कहने लगी,राम की महतारीतात पिता के तुम तो हो,प्राणों से भी प्यारेदेख प्रसन्न होते थे वे,नित-नित चरित तुम्हारेराज देने को शुभ दिन, उन्होंने क्यों साधेक्यों तुमको वन दे दिया, बोलो किस अपराधेतात सुनाओ मुझे समस्या, कर दूँ अभी निदानदिनकर कुल को जलाने को,कौन हुआ कृषानपाये राम रुख सचिव सुत,कारण माँ को बताएसुन प्रसंग मूक हुई ऐसे वह,दशा बरने न जाएरख पाऊँ न भेज सकूँ, दो दारुण दुख डाहैविधि की टेढ़ी हुई गति,मुझसे ये क्या चाहैधर्मऔऱ ममता दोनों ने,आकर माँ को घेरासाँप छछूंदर गति हुई, विषाद ने डाला डेराकरूँ अनुरोध औऱ रखूँ,मैं अपने प्रिय पुत कोधर्म विरोधी होवे काज,अन्याय कैकेई सुत कोजाने कहूं तो बड़ हानि हो,सोच विकल हुई रानीसमझ धर्म को संभल गई, राम भरत सम जानीतात किया तुमने सही, कहे धीर धर महतारीपिता आज्ञा सबसे उचित,सब धर्मों मे भारीजो पिता की ही आज्ञा है,तो मुझे बड़ी जानोतात मत जाओ वन को,कहना मेरी मानोजो पिता माता की आज्ञा है,तो मै न रोकूंगीसौ अवध वन मे तेरे हो,दुख मे खुद को झोकूंगीपिता वनदेव मात वनदेवी,सेवा हो खग मृग केसदा सहायक रहे सभी,तुम तारे हो सब दृग केआज अयोध्या अभागी है,वन हुआ बड़ भागजो रघुवंश तिलक को ही, आज दिया है त्यागजो मैं कहूं तात मुझे भी,अपने संग ले जाओसंदेह हृदय तुम्हारे हो,मेरी भी गति बनाओपुत्र परम प्रिय तुम सबके,प्राणों से भी प्यारेवही तुमको वन भेज रहे, जीयेंगे कौन अधारेझूठा नेह बढ़ा करके, हठ मैं ना करती हूंबिसर न जाओ माता को,बस इतना डरती हूंदेव पितर सब तात तुम्हें, राखे पलक समानचौदह बरस अवधि जल है, कुटुंब मीन समानसोच विचार करौ उपाय, सबके जीते जी आओजन परिजन औऱ नगर को,अनाथ करके जाओसबका पुण्य नष्ट हुआ, विपरीत काल करालपरम अभागिन हूं मैं ही,बिलपत माँ विकरालराम चरण से लिपटी माता, दुख बरने नहीं जाएहृदय लगाके माता को प्रभु, बहुत विधि समझाएदारुण दुसह दुख डाह भरी, मात हृदय घबरायेनन्हें बालक की भाँति प्रभु, माता को समझाये✍🏻मधु तिवारी, कपसदा,दुर्ग, छत्तीसगढ़
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रामायण की उद्धित महाकथा के एक अंश की झांकी मधु जी आपने बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत की, जिसमें आपने मातृ की ममत्व को एक असहनीय पीड़ा को दर्शाया। बहुत खूब….. सराहनीय…।
बहुत बहुत धन्यवाद शर्मा जी ………उत्साहित करते रहेंं ….बहुत बहुत आभार…
अप्रतिम…..क्या भावों को आपने बाँधा है….कमाल है….बधाई हृदयतल से आपको….नमन आपके भावों को…..जय हो…. आप अन्यथा न लें…मैं अनजान हूँ ऐसी लेखनी से…हाँ जो गुनगुनाने में लय मुझे लगी मैं सिर्फ और सिर्फ उस हिसाब से इंगित कर रहा…यहाँ बाधा लगी मुझे….
राज देने को शुभ दिन, उन्होंने क्यों साधे
क्यों तुमको वन दे दिया, बोलो किस अपराधे
इन दोनों पंक्तियों में ऊपर और नीचे क्यूँ है….भाव समझ पा रहा कि वन ही भेजना था तो राज देने को शुभ दिन क्यूँ साधते रहे पिता…. पहली पंक्ति मुझे लगता कुछ ऐसे होनी चाहये…
“देना नहीं था राज तो, शुभ दिन क्यूँ गए साधे
वन गमनादेश भी , दिया किस अपराधे
पाये राम रुख सचिव सुत, कारण माँ को बताए
सुन प्रसंग मूक हुई ऐसे ,वह दशा बरने न जाए
(बरनी)
जो पिता माता की आज्ञा है,तो मै न रोकूंगी
(जो मात पिता की आज्ञा है तो मैं न रोकूंगी )
तात मत जाओ वन को,कहना मेरी मानो
(मत जाओ तात वन को, कहना मेरा मानो)
हृदय से आभार आपका सर………..जहाँ जैसा उचित लगेगा, मैं आपकी सलाह पर अवश्य अमल करूंगी ।
बेहद सुन्दर रचना मधु जी…….
बहुत बहुत आभार सर ……………..
Madhu ji, bahut sundar rachna…
बहुत बहुत आभार अनु जी……………..
Ati sundar
आभार आपका किरण जी………………………….
अप्रितम ……………..उम्दा सृजन मधु जी ……..शायद यह रचना आपकी परियोजना का कुछ अंश है जिस पर आप कार्य कर रही है !
………..बब्बू जी का मत तर्क संगत है……………….!!
बहुत बहुत आभार सर…………….जी आप सही समझ रहे हैं।
mai agyaani tha jo ab tak aapkI is rachna ko padh na paya…mata ki vyatha ko jis dhang ke sath aapne prastut kiya hai uske liye aapko koti koti pranam mam. ye jaankar aur prsannata hui ki aap bhi chhattisgarh se talluk rakhti hain.
bhut bhut aabhar apka nitesh…….. apne meri rachana ko padha,sraha ……sukriya……. ha mai chattisgarh se hi hu.
Ramyana ke ansh ka sundar varnan
Sadar abhinandan
bhut bhut aabhar apka…………. utsahwardhan hetu……..