कोई संग रहा ना मेरे पर मैं अंग हूँ,कोई रंग रहा ना मेरा पर मैं सतरंग हूँ।मैं नभ हूँ या धरा, जो हवाओ में जकड़ा हूँना शीश मेरी न पग मेरा, फिर भी मैं खड़ा हूँ।ना सत्य मुझमे ना असत्य,पर खुद से मैं लड़ा हूँ,ना वस्त्र मिला ना ज्ञान की चादर, बस प्रेम ओढ़े मैं बढ़ा हूँ.।मैं आज हूँ या कल,जो पल भर में बदला हूँ,ना आगे कोई ना पीछे मेरे,फिर भी मैं छिपा हूँ।मैं खुशबु नहीं मैं सागर नहीं फिर भी मैं बहा हूँ,मैं डरता नहीं,मैं जलता नहीं फिर भी मैं सहमा हूँ.।मैं क्या हूँ मैं कौन हूँ, क्यों समय मैं खुद को कहता हूँ,है अदम्य साहस की गरजना,जो अब तक मैं टिका हूँ.।मैं पथ हूँ या पथिक जो हर पल चला हूँ,है पावन ये धरती जिससे अक्सर मैं जुड़ा हूँ.।ना रोष है मुझमे, ना दोष है मुझमे,गर है प्रज्ज्वलित कुछ, तो बस एक बहती धारा हूँ.।समय का संग एक बड़ा है जंग,शिव का तांडव और बाजे मृदंग.ना कोई दुश्मन ना कोई साथी फिर भी मैं लड़ता हूँ,ना मैं मथुरा ना मैं काशी, फिर भी मैं गंगा हूँ.नितेश बनाफर (कुमार आदित्य)
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रहस्यमय रचना ………………
मन के अंतर्मुखी आयमों को पिरोने का अच्छा कार्य……लिखने के बाद आप अगर उसको दो चार बार पढ़ लें तो और अच्छा हो सकता है…टंकण गलतियों का भी सुधार हो सकता है और भागों का निखार भी….बस लिखते रहिये….
छायावादी झलक है| अनेक जगह स्पष्ट नहीं है \ शर्माजी की सलाह पर ध्यान दें|
bilkul sir….baat ka dhyaan rakhunga
खूबसूरत प्रयास ,,,,,,,,,,,,,,,,