वायु के पंछी गीतों के फूल चुनते हैं,बरसात की झड़ी बरसकर फिर व्याकुलता से जाने किसकी राहें देख रहीं,कौन जाने आज गगन का ह्रदय इतनी ज़ोर-ज़ोर क्यूँ धड़क रहा,तुमने स्मरण किया! इसका परिचय देने स्वयं स्नेह के देवतागण आये हैं।जिस तरह सभी जीव-जंतु जन-धन के परे होकर प्रति संध्या नमन करते हैं,जिस तरह नीले अम्बर की हर बूँद कितनी कोमलता से सिंधु में धीरे-धीरे विलीन हो जाती है,हे महाप्रेमी! मेरे सभी अहंकार मिटकर प्राणों के हाथ विस्त्रृत किये हुए हैं,”आज यह जीवन पराधीन हो जाये-” की पुँकार नदियों में लहरें की भाँति उठी है,हम-तुम एक ही अनंत लघु कण में विलीन हो जाएँ,जिसका नाहीं तो कोई रूपांतरण स्वरुप हो और न ही अंत,यह प्राथना अंतिम शेष और केवल शुन्य,और कोई अपरिचित विचार मन में कभी भी उत्पन्न न हो सके।
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बेहद खूबसूरत भाव हैं आपके…..व्याकरण और टंकण अशुद्वियाँ हैं….गुस्ताखी माफ़ कुछ पंक्तियाँ मुझे लगता अस्पष्ट हैं….जैसे…
“अनंत लघु कण में विलीन हो जाएँ” ….अनंत है तो लघु क्यूँ….
“जिसका नाहीं तो कोई रूपांतरण स्वरुप हो और न ही अंत,
जब रूपांतरण वर्तमान प्रस्थिति नहीं होगी तो अंत संभव नहीं…. रूपांतरण लिखना ज़रूरी नहीं मुझे लगता… जिसका कोई अंत न हो उचित है… जब प्रार्थना अंतिम है यह….
“और कोई अपरिचित विचार मन में”
जब शून्य ही में विलीन होना तो क्या परिचित क्या अपरिचित ? भेद क्यूँ….
भाव की खूबसूरती के साथ सुन्दर रचना आपकी………….