शीर्षक-दिवाली बीतनी जरुरी हैहम हर साल जलाते हैंरौशनी से भरी मिटटी के दीयेरुई की बातियाँजलती हैं रौशनी के लिएहम जलाते दीयेगणेश लक्ष्मी की मूर्ति के सामनेहम जलाते दीयेघर की चौखट परआंगन की तुलसी परचिढाते है तारो कोऔर कहते है उतर कर देख जमीं परकुछ तारे मेरे घर भी जगमगाते हैपर नहीं जला पाते एक दीपकअपने अन्दर के अँधेरे के लिएइस दिवाली भी अँधेरा हैपिछले दिवाली भी अँधेरा थाआगे भी रहेगाहम लोग रौशनी पसंद लोग हैहमें हर जगह रौशनी चाहिएपर कुछ काम हमारेअँधेरे में भी तो होते हैहमें ना वहां कोई दीपक चाहिएना कोई रौशनी चाहिएदीपो वाली रात बीत जाने दीजिये हुजुरहम और अँधेरा लाने वाले हैहमारी चाहतो के लिए ये जरुरी भी हैउजाला हो या ना होदिवाली बीतना जरुरी है—अभिषेक राजहंस
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अँधेरा तो हर जगह है….अंदर बाहर…दीपक के नीचे भी….कोई भी त्यौहार सिर्फ बिताने के लिए नहीं होता…. दीपावली का महत्व बस बिताना है नहीं है….हाँ खोखले रीति रिवाज़ हों या मजबूरियाँ कुछ जो दीपावली को बेरंग करती हैं….आपकी रचना के प्रथम और उतराध विरोधाभासी हैं….
पर कुछ काम हमारे
अँधेरे में भी तो होते है
हमें ना वहां कोई दीपक चाहिए
ना कोई रौशनी चाहिए
दीपो वाली रात
बीत जाने दीजिये हुजुर
हम और अँधेरा लाने वाले है
हमारी चाहतो के लिए ये जरुरी भी है
उजाला हो या ना हो
दिवाली बीतना जरुरी है—
अमावस्या की रात ही क्यूँ होती है दीवाली…और दीये ही क्यूँ जलाते… सोच के देखिये….मुश्किल नहीं है….. जवाब छुपा है इसमें आपकी रचना में उठे अंतर्द्वंद का…..
अमावस्या की काली अंधेरी रात मे दिये जलाना …..ये प्रतीक ही है मन के अज्ञान अंधेरे को दूर करने का ……….. अच्छी रचना आपकी………