जिंदगी की क़िताब कुछ बिखरने सी लगी हैबेचने की ख़ातिर इसे मुझे मढ़ना नहीं आया ||लोग कहते है कि मुझे पत्थर गढ़ना नहीं आयातुम्हे क्या ख़ाक लिखता तुम्हे पढ़ना नहीं आया ||खुद से ही लड़ता रहा खुद की ही ख़ातिर मेंतुम्हारे लिए ज़माने से मुझे लड़ना नहीं आया ||मेरे साथ और लोग थे सब आगे निकल गएमै अब तक वही हूँ मुझे बढ़ना नहीं आया ||
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शिवदत्तजी…मुझे आपकी रचना में तारतम्य की कमी लग रही है आज….देखियेगा….
ji jarror mitra, is par gaur kiya jayega
विचार खूबसूरत है आपका ………तालमेल की कमी है ………..दूसरे शेर को प्रथम में रखे तो ज्यादा खूबसूरत लगेगा ……… बाकी सुर लय ताल में कैसे बिठाना है ये तो आप अच्छे से जानते है ….!
Aabhar nivatiya ji, prayas jari rahega apne aap ko sudharne ka
Sundar bhav…
aabhar Anu ji………….
Sundar bhav hain …….Zindagi mein Rukavten to aati rethi hain par himmat nahi harni chahiye
sahi kahan aapne… AAbhar
bahut hi sunder bhav….
aabhar Juber ji…