सूरज ढलने से पहले जब घोर अंधेरा होता है,भय लगता है मन में और बादल सा उमड़ जाता है।दूर दृष्टी से देखा जिसको नयनों ने पुलकित होकर,पास पहुँचकर देखा तो बस बिंब नजर आता है। नजर पड़ी ज्यों उन्मादों पर नई उम्मीद जगाता है, धरे हुये कागजादों से धूल उड़ा जाता है। वक्त गुजरता है जैसे फिर धूँधलापन छा जाता है, विचार विलुप्त होते और ईद का चाँद नजर आता है।खुद को वर्णित करना भी अब आतिश्योक्ती लगती है, अथक तपों की बावजूद भी आत्मतृप्ती नहीं होती हैैं। चूँक अवसरों को मन ये ऐंठ-ऐंठ रह जाता है, अंतर्मुखी लगुँ पर हृदय में करुण भाव बहती है। जब-जब कदम बढ़ाता हूँ कुछ भी हाथ न आता है, पछतावा भी अब तो सब को छलावा ही लगता है। इसके इतर भी कुछ सपने अपने भी मन में होते है, काश! कोई समझे अब तो यह भी सवाल लगता है।
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BAHUT ACHHEY BHAV KE SAATH AAPNE RACHNA KI PRASTUTI KI . BABUT SUNDER..
dhanyawad sir ji
mrmspshi ………….pida ko kayatmk rup dene me aap samrth rahe hai…..
dhanyawad mam..aapki tareef hme aur prerit kregi
बहुत सुन्दरता से शब्दों को बाधां है प्रशान्त जी ,,,,,,,,,,,,अति सुन्दर
bahut bahut aabhar
bahut khoobsoorat………….
thanq sir ji
बढ़िया भावपूर्ण..बधाई..
aabhar sir ji
सुंदर…
dhanyawad sir