मिले हैं पल चार इनको ही सजाना है फ़साना नहीं कुछ और बस आना और जाना है रुक सका न कोई फिर कैसा बसना बसाना है रीत है सदियों पुरानी सबने इसे निभाना है भटक रहे जन्मों से हम कोई ठौर न ठिकाना है ज़िन्दगि तो इक कहानी है हमें तो भूमिका ही निभाना है कहाँ बच सका है कोई मौत तो इक बहाना है क्या हूँ मैं और मेरा क्या अन्त सब यहीं छूट जाना है हम बुनते हैं जाल सुनहरेफिर देते हैं उनपे पहरे सुखों का तो कहना ही क्या दुखों को भी गले लगाना है कैसी ज़िन्दगी है कैसा अजब फ़साना है इस फ़रेब को तो हमने ज़रा हँस के ही निभाना है
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यही तो चक्कर है सारा…जिसमें सब उलझे…हाहाहा…. बेहद खूबसूरती से आपने हर किसी के भाव पिरोये हैं….टंकण गलतियां है एक दो जगह ….फ़साना की जगह फँसाना हो गया जैसे….
बब्बू जी ग़लतियों को बताने के लिए धन्यावाद,,सुधार कर दिया है ,कभी हम लिखते ठीक हैं पर छपता ग़लत है ।उसे ठीक से चेक नहीं करने के लिए क्षमा चाहती हूँ ,,,,,धन्यावाद
fareb shabd kaa istemaal bahut bhadiyaa lagaa Kiran ji. Satyparak khoobsoorat rachnaa…..
शिशिर जी मेरी समझ से तो ज़िन्दगी किसी माया जाल से कम नहीं कब क्या हो जाए पता नहीं ,सो फ़रेब शब्द का इसत्योमाल किया
बहुत सुंदर .
विजय जी बहुत २ धन्यावाद
जीवन अनुभव का समूर्ण सार समेत दिया आपने ……………….यही वास्तविकता है ………..बहुत खूबसूरत किरण जी !
निवातियॉ जी जीवन को जैसे समझा शब्दों में पिरो दिया ,आपको अच्छा लगा इसके लिए आभारी हूँ ,बहुत २ धन्यावाद
Bahut sundar rachna, Kiran ji..
अनु जी बहुत २ धन्यावाद
Awesome …………….,
मीना जी बहुत २ आभारी हूँ
bhut badhiya………….
darshanikta ka put gajab hai…………
मधु जी सराहना के लिए बहुत २ धन्यावाद
waaahhhhhhh bas ab kya kahu ……
Bahut 2 dhanyawad Mohit JI