शब्द जब थोथे लगने लगेतुमने देह इस्तमाल किया,गुरेज नहीं किया,शब्द उथले हो गए,देह वाचाल हो गए।देह को खुलने दिया,जहां तक जा सकती थी गंध,रूप,भाव, गठन,तुमने शब्दों पर रख दिए देह।शब्द हल्के हो गए,देह भारी खुलने लगे,तुम्हारे लिए शब्द से ज्यादा,वाचाल थे देह।देह की भाषा मालूम था तुम्हेंतुमने परहेज नहीं किया,कलम को देह पर चलने दिया,निरपेक्ष हो देह को जीया।कलमकार तुम्हारे समय के पीछे होते गएतुम बैनरों पर,बाजार में छाती चली गई,कौन था तुम्हारे साथ दौड़ में?तुमने देह को कविता की तरह बुना,उपन्यास की तरह एक एक किनारे खोले।देह कविता से आगे,उपन्यास के पात्रों की तरहपढ़ने लगे तुम्हारे देह के कोनों,रंग रूप की तारूफ भी होने लगी।कलम पिछड़ती रही,भाषा जो थी तुम्हारे देह की,वाचाल हो घूरती रही,बाजार की नजर थी,तुम्हें चुनने को बेताब।
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बेबाक रचना।बधाई।
Achcha kataaksh ………..
आपके कटाक्ष में कहीं न कहीं कुछ चुभन सी है….. अच्छा लिखा है…..
vah bahut hi sunder tarike se aapne rachana srijan kiya h
Saathi aap sab ka shukriya aao logon ne hausla badhaya
Bahut khub…………