II छंद – गीतिका IIअपनी अपनी सब कहते, अपनी ना पहचाने….अपने को जब खो बैठे, आयी अक्ल ठिकाने…चोरों का सरदार बना, लिए धर्म का ठेका…कोवा हंस बना जब हो, होगा क्या खुदा का…मन चंचंल फिरा भागा, बिना पैर ओ सर के….नहीं ठोर जब मन में तो,वन वन है फिर भटके…खोजत खोजत सब घूमा, मिला नहीं मुझे चोर…वो मेरे अन्दर ही था, मैं जग मचाया शोर….\/सी.एम्. शर्मा (बब्बू)(२६ मात्रा, १४-१२ यति, विषम चरणान्त दोहे जैसा)
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Bahut hi sundar, Sharmaji….
तहदिल आभार आपका……anuji….
This is the true philosophy of self improvement……………..
जी सही कहते आप….तहदिल आभार आपका…..Madhukarji….
bahut sundar
तहदिल आभार आपका…..chandra mohanji….
bhut khoobsurat bhav se purn rachana…………. sir……
तहदिल आभार आपका…Madhuji….
एक अच्छी गीतिका और सुन्दर परिदृश्य बहुत सुन्दर लिखा है आपने।
तहदिल आभार आपका……Sharmaji….
Behad khubasurat ……. ……., Jitani prasansha karun kam hi hogi . Aapke shabdon me…….” jai ho” ………..
आपके सम्मान के भावों के आगे नतमस्तक हूँ……ह्रदय से कोटि कोटि आभार……Meenaji….
बहुत खूबसूरत बब्बू जी ……………खूबसूरत रचनात्मकता ………………..अब तो आपसे आकांक्षाएं बढ़ती जा रही है …हाहाहाहाहा !
आप जैसा चाहो….जो चाहो लिखवा लो…. कार्य आपका है मेरा नहीं….हाहाहा…. तहदिल आभार आपका….Nivatiyaji….
बहुत ही सुंदर.
तहदिल आभार आपका……Vijayji….